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कर्मनाप भाग चार
या माहारक- शरीर के द्वारा ग्रहण किये हुये मनोवक्ष्य-समूह की भवद से होता है। (२) जीव के उस व्यापार को 'वचन योग' कहते हैं, जो औदारिक, वैक्रिय या आहारक-बारीर को क्रिया द्वारा संचय किये हुये भाषानध्य की सहायता से होता है (३) बारीरधारी आत्मा को पार्य शक्ति का व्यापार-विशेष 'काययोग' कहलाता है ॥१॥
-तमार्गणा लो भेटों का मः -- वेय नरिस्थिनपुसा, कसाय कोहमयमायलोभ ति। महसुयवहिमणकेवल,-बिहंगमइसुअनाण सागारा ॥११॥
वेदा नरस्त्रिनपुसकाः, कषाया क्रोधमदमायालोमा इति । मातश्रुतावधिमनः कवयिङ्गमति श्रुताज्ञानानि साकाराणि ||१||
अर्थ-पुरुष, स्त्री और नपुंसक, ये तीन वेद हैं । क्रोध, मान माया और लोभ, ये चार मेव कषाय के हैं । मति, श्रुत, अवधि, मनः पर्याय और केवल जान तथा मति-अज्ञान, श्रुत-अज्ञान और विभङ्गजान, ये आठ सकार (विशेष) उपयोग हैं ॥११॥
भावार्थ-(१) स्त्री के संसर्ग को इच्छा 'पुरुषवेव', (२) पुरुषके संसर्ग करने की इच्छा स्त्रीवेद' और 1) स्त्री-पुरुष दोनों के संसर्ग की इच्छा 'भपुसकत्रेव' है ।
१-यह लक्षग भागवेदका है । द्रव्यवेदका निर्णय बाहरी चिह्नों से किया जाता है:-पुरुष के चिन्ह, डाड़ी-मूछ आदि हैं। स्त्री के चिन्ह डाढ़ी मूछ का अभाव तथा स्तन आदि हैं । नसक में स्त्री-पुरुष दोनों क कुछ-कुछ चिन्ह होते हैं ।
यही बात प्रज्ञापना-भाषा पद की टीम में ही हुई है: - “योनिम दुवमस्पर्य, मुम्भता कोस्वता स्तनो। पुस्कामितेति लिङ्गानि, सप्त स्रोस्थे प्रचक्षते ॥१॥ मेहनं खरता बाढय, शोषटीय मधु धृष्टता । स्त्रीकामिति लिङ्गानि, सप्त धुरो प्रचक्षते ॥२॥