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कर्ममन्य भाग चार (२) निय-खचा, नेत्र मावि जिन साधनों से सर्वो-गर्मी,
(५) वेदमोहनीय के उदय-उदीरणा से होने वाला परिणाम का संमोह (चाञ्चल्य), जिससे गुण-दोषका विवेक नहीं रहता, वह 'वेद' है।-गा० २७१
(६) 'पाय' जीव के उस परिणाम को कहते हैं, जिससे सुख-दुःख रूप अनेक प्रकार के घास को पैदा करने वाले और संसार रूप विस्तृत सीमा वाले कर्मरूप क्षेत्र का कर्षण किया जाता है। -गा २८१ ।
___ सम्मनत्व, देशचारिय, सर्वचारित्र और यथाख्यातचारित्र का घात (प्रतिबन्ध) करने वाला परिणाम 'काय' है।
-गात २२ । (७) जिसके द्वारा जीव तीन काल-सम्बन्धी अनेक प्रकार के द्रव्य , गुण और पर्याय को जान सकता है, वह 'शान' है। --गा २९८ ।
(1) अहिंसा आदि व्रतों के धारण, ईयाँ आदि समितियों के पासान कषायों के निग्रह. मन आदि दण्ड के त्याग और इन्द्रियों की जय को 'संयम'
__ -गा. ४६४। (६) पदार्थों के आकार को विशेष रूप से न जानकर सामान्य रूप से जानना, वह 'दर्शन' है।
--गा० ४७१। (१०) जिस परिणाम द्वारा जीव पुण्य-अप कर्म को अपने साथ मिला लेता है, वह लेश्या' है।
___..-पा०४८८ । (११ जिन जीवों की सिद्धि कभी होने वाली हो-जो सिद्धि के योग्य हैं, वे भन्य' और इसके विपरीत, जो कभी संसार में मुक्त न होंगे, वे 'अभव्य' हैं।
-गा५५६ । (१२ वीतराग के कहे हुये पाँच अस्तिकाय, छह दृश्य या नव प्रकार के पदार्थों पर आज्ञापूर्वक या अधिगमपूर्व प्रमाण-नय-निक्षेप-द्वारा) श्रद्धा करना 'सम्यक्त्व' है।
-गा० ५६० । [१३. नो-इन्द्रिय (मन) के आवरण का क्षयोपशम या उससे होने वाला ज्ञान, जिसे संशा कहते हैं, उसे धारण करने वाला जीव 'संझी' और इसके विपरीत, जिसको मन के मिवाय अन्य इन्द्रियों से ज्ञान होता है वह 'असंज्ञी' है।
गा० ६५९ । (१४) औदारिक, बैंक्रिय और आहारक, इन सीन में से किसी भी शरीर के योग्य वर्गणाओं को पथायोग्य ग्रहण करने बाला जीव 'आहारक है
—गा० ६६४ ।