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कमग्रन्थ भाग चार
आहार का अभिलाष, शुधावेदनीयकम के उदय से होने वाला आत्मा का परिणाम-विशेष (अध्यवसाय) है । यथा:---
___ "माहारसंज्ञा आहाराभिलाषः क्षुदनीयोषयप्रभवः खल्वात्मपरिणाम इति ।"
-आवश्यक, हारिमट्टी वृत्ति पृ० ५८० । इस अभिलाषरूप अध्यवसाय में 'मुझे अमूक वस्तु मिले तो अच्छा, इस प्रकार का वाब्द और अर्थ का विकल्प होता है। जो अध्यवसाय विकल्प सहित होता है, वही श्रुतज्ञान कहलाता है । यथा:--
"इंशियमणोनिमित्तं जं विष्णाण सुयाणुसारेणं ।। निपयत्युत्तिसमत्थं, तं मायसुयं मई सेसं ॥१००1"
__ --विशेषावश्यक । अर्थात् इन्द्रिय और मन के निमित्त से उत्पन्न होने वाला ज्ञान, जो नियत अर्थ का कथन करने में ममर्च और श्रुतानुसारी (शकद तथा अर्थ के विकल्प से युक्त) है, उसे 'भावश्च त' तथा जल से भिन्न ज्ञान को 'मतिज्ञान' समझना चाहिये । श्च यदि एन्द्रियों में श्रत उपयोग न माना जाय लो उनमें आहार का अभिलाष, जो शास्त्र-सम्मत है। वह कैसे घट सकेगा ? इसलिये बोलने और सुनने की शक्ति न होने पर भी उनमें अत्यन्त सूक्ष्म श्रुत-उपयोग अवश्य ही मानना चाहिये ।
भापा तथा श्रवणलब्धि वाले को हो भावश्रुत होता है, दूसरे को नहीं इस शास्त्र-कथन का तात्पर्य इतना ही है कि उक्त प्रकार की शक्ति वाले को स्पष्ट भावश्रुत होता है और दूसरों को अस्पष्ट ।