________________
कर्मग्रन्थ भाग चार
(२) - मार्गणास्थान- अधिकार । मार्गणा के मूल भेद ।
गइदिए ध काये, जोए बेए कसायनाणेसु । संजमदंसणलेसा, भवसम्मे स निआहारे' ॥ ६ ॥ गतीन्द्रिये काथे, योगे वेदे कषायज्ञानयोः । संयमदनलेश्या भव्यसम्यक्त्वे संज्ञयाहारे ॥ ॥
अर्थ - मार्गणास्थान के गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान, संयम, वर्शन, लेश्या, भव्यश्व, सम्यक्त्य, संशित्व और आहारकस्व, ये चौदह मेद हैं ॥ ६ ॥
मार्गणाओं की व्यास्था
हैं
भावार्थ - ( १ ) गति--जो पर्याप्त, गतिनामकर्म के उदय से होते जिससे जोर मनुष्य विदारक का व्यवहार होता है, वे 'गति' हैं ।
१- यह गाथा पञ्चसंग्रह की है (द्वार १. गा० २१) । गोम्मटसार जीवकाण्ड में यह इस प्रकार है:
―
"वियेसु काये, जोगे वेदे कसायणाणे ग
संजमसणलेस्साविवासमत्तसम्णि आहारे ॥ १४१ ॥ "
२ -- गोम्मटसार - जीवकाण्ड के मार्गणाधिकार में मार्गणाओं के जो लक्षण हैं, वे संक्षेप में इस प्रकार हैं:
(१) गतिनामकर्म के उदय-जन्य पर्याय या बार गति पाने के कारणभूत जो पर्याय, वे 'गति' कहलाते हैं ।
-- गा० १४५
(२) अहमिन्द्र देव के समान आपस में स्वतन्त्र होने से नेत्र आदि को 'इन्द्रिय' कहते हैं ।
-- ना० १६३ ॥ (३) जातिनामकर्म के नियत सहचारी अस या स्थावर- नामकर्म के उदय से होने वाले पर्याय 'काय' हैं । गा० १८० ।
(४) पुल-विपाकी शरीरनामकर्म के उदय से मन, वचन और काययुक्त जीव की कर्म-ग्रहण में कारणभूत जो शक्ति, वह 'योग' है । - गा० २१५