Book Title: Karmagrantha Part 4
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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भाग चार
को घनिष्ठता और पहला हो गुणस्थान होने के कारण, उनमें बक्षुवर्शन और अधक्षुवंशम के सिवाय अन्य सामान्य उपयोग तथा मति-अहान, श्रुत-अज्ञान के सिवाय अन्य विशेष उपयोग नहीं होते।
सूक्ष्म-ए केन्द्रिय' आदि उपयुक्त दस प्रकार के जीवों में तीम उपयोग कहे गये हैं, सो कर्मग्रन्थिक मत के अनुसार, सैद्धान्तिक मत के अनुसार महीं।
१-देखिये, परिशिष्ट छ ।'
२-इसका खुलासा यों है:-पद्यगि बादर एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रिन्द्रिय,चतुरिन्द्रप और असंज्ञि-पञ्चेन्द्रिय, इन पाँच प्रकार के अपर्याप्त जीवों में काम ग्रन्थिक विद्वान पहला और दूसरा, ये दो गुणस्थान मानते हैं देखिये, आगे गा५वीं । तथापि ने दूसरे गुणस्थानक समय मति आदि को, ज्ञानरूप न मानकर अज्ञानरूप ही मान लेते हैं । देखिये, आगे गा० २१वीं । इसलिये, उनके मतानुशार पर्याप्त-अपर्याप्त सक्षम-एकेन्द्रिय, पर्याप्त बादर-एकन्द्रिय, पर्याप्त वीन्द्रिय और पर्याप्त नीन्द्रिय इन पहले मुणस्थान-बाले पाँच जीवस्थानों के समान, बादर एकन्द्रिय आदि उक्त पाँच प्रकार के अपर्याप्त जीवस्थायों में भी, जिनमें दो गुणस्थानों का सम्भव है, अचक्षुर्दर्शन, मतिअज्ञान और श्रुत-अज्ञान, ये तीन उपयोग ही माने जाते हैं ।
परन्तु सैद्धान्तिक विद्वानों का मन्तव्य कुछ भिन्न है । ये कहते हैं कि "किसी प्रकार के एकेन्द्रिय में-चाहे पर्याप्त हो या अपर्याप्त, सुक्ष्म हो या बादर-पहले के सिवाय अन्य गूणस्थान होता ही नहीं। दखिये, गा० ४६ वीं | पर द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और असंज्ञि-पच्चेन्द्रिय, इन चार अपर्याप्त जीवस्थानों में पहला और दूसरा, ये दो मुणस्थान होते हैं।' साथ ही सैद्धान्तिक विद्वान, दूसरे गुणस्थान के समय मति आदि को अज्ञानरूप न मानकर ज्ञानरूप ही मानते हैं। देखिये, मा० ४६ वीं । अत एब इनके मतानुसार वीन्द्रिय आदि उक्त बार अपर्याप्त-जीवस्थानों में अचक्षुदंशन, मति अशान, मतिज्ञान और श्रुतज्ञान, के पाँच उपयोग और सूक्ष्म एकेन्द्रिय आदि उपयुक्त दस जीवस्थानों में से द्वीन्द्रिय आदि उता चार के सिवाय शेप छह जीव-स्थानों में अवक्षुदर्शन' मति-अज्ञान, श्रुत-अज्ञान, ये तीन उपयोग समझने चाहिये ।