Book Title: Karmagrantha Part 4
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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परिशिष्ट 'ग' | शम्ब पर
कर्म ग्रन्थ भाग चार
पृ० १० पंक्ति १६ के " संज्ञा "
संज्ञा का मतलब आयोग ( मानसिक क्रिया - विशेष ) से है | इनके (क) ज्ञान और (ख) अनुभव, ये दो भेद है ।
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(क) मति श्रुत आदि पाँच प्रकार का ज्ञान 'ज्ञानसंज्ञा' है । (ख) अनुभवसंज्ञा (१) आहार, (२) भय, (३) मैथुन, (४) परिग्रह (५) क्रोध (६) मान, (७) माया (८) लोभ, (६) ओघ, (१०) लोक (११) मोह. (१२) धर्म, (१३) सुख, (१४) दुःख, (१५) जुगुप्सा और (१६) शोक, ये सोलह भेद है। आचाराङ्ग-नियुक्ति, गा० ३८-- ३९ में तो अनुभवसंज्ञा के ये सोलह भेद किये गये है। लेकिन भगवती - शतक ७. उद्देश में तथा प्रज्ञापना-पद में इनमें से पहले दस हो भेद, निर्दिष्ट है।
ये संज्ञार्थ सब जीवों में न्यूनाधिक प्रमाण में पाई जाती है, इसलिये ये संज्ञि असज्ञि व्यवहारको नियामक नहीं है। शास्त्रमें सज्ञि असंज्ञी का भेद है, सो अन्य असंज्ञाओंकी अपेक्षा से एकेन्द्रिय से लेकर पञ्चेन्द्रिय पर्यन्तके जीवोंमें चैतन्यता विकास क्रमशः अधिकाधिक है। इस विकासके तर-चमभावको समझानेके लिये शास्त्रमें इसके स्थल रीतिपर बार विभाग किये गये हैं ।
(१) पहले विभाग में ज्ञानका अत्यन्त अल्प विकास विवक्षित है | यह विकास इतना अल्प है कि इस विकाससे युक्त जीव, मूच्छित की तरह चेष्टा रहित होते हैं। इस अव्यक्ततर चैतन्यकी 'ओघसखा' कही गई है । एकेन्द्रिय जीव, ओषस ज्ञावाले ही है ।
(२) दूसरे विभाग में विकासकी इतनी मात्रा विवक्षित है कि जिससे कुछ भूतकालका -- सुदीर्घं इतकालका नही- --स्मरण किया जाता है और जिससे इष्ट विषयों में प्रवृत्ति तथा अनिष्ट विषयोंसे निवृत्ति होती है। इस प्रवृत्तिनिवृत्त-कारी ज्ञानको 'हेतुवादोपदेशिकी संज्ञ' कहा है। ब्रोन्द्रिय त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और सम्मूच्छिम पञ्चेन्द्रिय जीव हेतुवादोपदेशिकी संज्ञा वाले है ।
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(३) तीसरे विभाग में इतना विकास विवक्षत है कि जिससे सुदीर्घ