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कर्मग्रन्थ भाग चार
पर्याप्ति का स्वरूपः-पर्याप्ति, वह शक्ति है, जिसके द्वारा जीव, आहार श्वासोच्छवास आदिके योग्य पुद गमों को ग्रहण करता है और गृहीत पुद्गलों को आहार-आदिरूपमें परिणत करता है। ऐसी शक्ति जीवमें पुद्गलोंके उपचश्मे बनती है । अर्थात् जिस प्रकार पेटके भीतर के भाग में वर्तमान पुद्ग्लों में एक तरहकी शक्ति होती है, जिससे कि खाया हुआ आहार भिन्न भिन्न रूपमें बदल जाता है,इसी प्रकार जन्मस्थान-प्राप्स' जीव के द्वारा गृहीत पूदग्लोंसे ऐसी शक्ति बन जाती है, जो कि आहार आदि प्रदालोंको खल-रस आदिरुपों में बदल देती है। वहीं शक्ति पर्याप्ति है । जनक पुद्ग्ल में से कुछ तो ऐसे होते हैं, जो कि जन्मस्थान में आये हुये जीवके द्वारा प्रथम समय में ही ग्रहण किये हुये होते हैं और कुछ ऐसे भी होते हैं, जो पीछे से प्रत्येक समय ग्रहण किये जाकार, पूर्व-गृहीत पुग्लों के संसग से तद्रूप बने हुये होते हैं ।
काय-भेदस पयाप्तिके छन् भद-5 आहार :, शरीरपर्याप्सि, (३) इन्द्रियपाति, (४) दवामोमालासपर्याप्ति, १५) भाषापर्याप्ति
और (६) मनःपर्याप्ति । इनकी व्याख्या, पहले कर्म ग्रन्थी ४६ वीं गाथाके भावार्थ में पृ० ६७ वें से देख लेनी चाहिये ।
इन छह पर्याप्तियों में से पहली चार पर्याप्तयों के अधिकारी एकेन्द्रिय ही हैं । द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रि य, चतुरिन्द्रिय और असज्ञि-पञ्चन्द्रिय जीव, मनः पर्याप्तियोंके सिवाय शेष पाँच पर्याप्तियोंके अधिकारी है । संज्ञि-पञ्चेन्द्रिय जीव, छहा पर्याप्तियों के अधिकारी है ।इस विषयको गाथा, श्रीजिनमद्रगणि क्षमाश्रमण-कुत बृहत्सग्रहण में है:
"आहारसरिदिय-पज्जत्ती आणपाणभासमणो।
प्रसारि पंच छपि य, एगिविविगलसंनीणं ।। ३४६ ॥'' पही गाथा गोम्मटसार-जीवकाण्ड में ११८ वे नम्बर पर दर्ज है। प्रस्तुत विषयका विशेष स्वरूप जाननेके लिये ये स्थल देखने योग्य है:
नन्दी, पृ० १०४-१०५ पञ्चस०, द्वा० १, गा० ५ वृत्ति, लोकप्र०, स० ३, श्लो०७-४२ तथा जीवकाण्ड, पर्याप्ति-अधिकार, गा० ११७-१२७