Book Title: Karmagrantha Part 4
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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कर्मग्रन्थ भाग बार
प्तियोंको पूर्ण करने ही अग्रिम भवकी आयु बांधता है। अन्तमुहत तक आयुबन्च करके फिर उसका जघन्य अबाधाकाल, जो अन्तमुहूर्त का माना गया है, उसे वह बिताता है । इसके बाद मरके वह गत्यन्सर में जा सकता है । जो अग्रिम आयुको नहीं बांधता और उस के अबाधाकालको पूरा नहीं करता, वह मर ही नहीं सकता।
दिगम्बर साहित्य में करण-अपर्याप्तके बदले नित्ति अपर्याप्त शब्द मिलता है: हर्ष में होडासा पनि ति शब्द का अर्थ शरीर ही किया हुआ है । अत एव शरीरपर्याप्ति पूर्ण न होने तक ही दिगम्बरीय साहित्य, जीवको नियंत्ति अपर्याप्त काहता है । शरीरपर्याप्ति पूर्ण होने के बाद वह, निवं त्ति अपर्याप्त व्यवहार करने की सम्मति नहीं देता । यथाः
"पजत सय उदये, णिणियपज्जति णिटिचो होकि । जाब सरीरमयुष्ण, शिव्यत्तिमपुष्णगो तात्र ॥ १२० ॥
__ ---जीवकाण्ड । सारोश यह कि दिगम्बर-साहित्यमें पर्याप्तनामकर्मका उदयवाला ही शरीर-पर्याप्ति पूर्ण न होने तक 'निर्वृत्ति-अपर्याप्त' शब्दसे अभिमत है।
परन्तु श्वेताम्बरीय साहित्य में 'करण' शन्दका शरीर, इन्द्रिय आदि पर्याप्तियाँ, इतना अर्थ किया हुआ मिलता है । यथाःकरणानि शरीराक्षावोनि ।'
-लो प्र0, स० ३, श्लो० १० | अत एव श्वेताम्बरीय सम्प्रदाय के अनुसार जिसने शरीर पर्याप्ति पूर्ण की है, पर इन्द्रिय पर्याप्ति पूर्ण नहीं की है, वह भी 'करण-अपर्याप्त कहा जा सकता है । अर्थात् शरीररूप करण पूर्ण करनेसे 'करण-पर्याप्त'
और इन्द्रियरूप करण पूर्ण न करनेसे 'कारण-अपर्याप्त' कहा जा सकता है। इस प्रकार श्वेताम्बरी सम्प्रदायकी दृष्टिसे शरीरपर्याप्तिसे लेकर मनः पर्याप्ति पर्यन्त पूर्व-पूर्व पर्याप्ति पूर्ण होनेपर 'करण-पर्याप्त' और उत्तरोत्तर पर्याप्तिके पूर्ण न होनेसे 'करण-अपर्याप्त' कह सकते हैं । परन्तु जब जीव, स्थयोग्य सम्पूर्ण पर्याप्तियोंको पूर्ण कर लेवे, तब उसे 'करण-अपर्याप्त नहीं रह सकते।