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कर्मग्रन्थ भाग चार
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परिशिष्ट "" पन्छ ११ के 'अपर्याप्त' शम्द पर
(क)अपर्याप्तके दो प्रकार हैं-(१)लब्धि-अपर्याप्त और (२) करण-अपयप्ति । वैसेही (ख)पर्याप्तके भी दो भेद हैं-(१)लब्धि पर्याप्त(२) करण-पर्याप्त।
(क)-जो जीय, अपर्याप्तनामकर्म के उदयके कारण ऐसी शक्तिवाले हों कि कि स्वयोग Te'त्रिों को पूर्ण किये बिरा ही मर जाते हैं, वे लब्धिअपर्याप्त हैं।
२-परन्तु कारण-अपर्यापतके विषय में यह बात नही,थे पर्याप्तनामकर्म के भी उदरपाले होते हैं । अर्थात् चाहे पर्याप्ततामकर्मका उदय हो या अपर्याप्तनामकर्मका, पर जब तक करणोंकी (शरीर,इन्द्रिग आदि पर्याप्तियोंकी समाप्ति नहो, तब तक जीव 'करण-अपर्याप्त' कहे जाते हैं।
(ख)१-जिनको पर्याप्तनामकर्म का उदय हो और इससे जो स्वयोग्य पर्याप्तियों को पूर्ण करने के बाद ही मरते है, पहले नहीं, वे 'लब्धि-पर्याप्त हैं।
२-करण-पर्याप्तोंके लिये यह नियम नहीं कि वे स्वयोग्य पर्याप्तियों को पूर्ण करके ही मरते है। जो लब्धि-अर्याप्त है,वे भी करण-पर्याप्त होते ही हैं। क्योंकि आहारपर्याप्ति वन चकनेके बाद कमसे कम शरीरपर्याप्ति बन जाती है तभी से जीव 'करण-पर्याप्त' माने जाते हैं। यह तो नियम ही है कि लब्धि. अपर्याप्त भी कमसे कम आहार, शरीर और इन्द्रिय. इन तीन पर्याप्तियों को पूर्ण किये बिना मरते नहीं । इन नियमके सम्बन्ध में श्रीमलयगिरिजीने नन्दी सूत्रको टीका, पृ० १०५ में यह लिम्का है -
___"पस्मारागामिमवायुध्या भ्रियन्ते सर्वएव देहिनः तस्यहारशरीरेमिय पर्याप्तिपर्याप्तामामेव व्यत इति'
अर्थात् सभी प्राणी अगले मवकी आयुको बाँधकर ही मरते हैं, बिना बाँप नहीं मरते । आयु तभी बांधी जा सकती है, जबकि आहार, शरीर और इन्द्रिय, ये तीन पर्याप्तियां पूर्ण बन चुकी हो।
इसी बातका खुलासा श्रीदिनयविजयजीने लोकप्रकाश सर्ग ३,श्लोक १ में इस प्रकार किया है:-जो जीव लब्धि-अपर्याप्त है , वह भी पहली तीन पर्या