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कर्मग्रन्थ भाग चार
भूतकालमें अनुभव किये हुये विषयोंका स्मरण और स्मरणद्वारा वर्तमान काल के फर्स व्यों का निश्चय किया जाता है। यह काम विचिष्ट मनकी सहायता से होता है। इस ज्ञानको 'दीर्घकालोपदेशिको संज्ञा' कहा है। देव, नारक और गर्भज मनुष्य तिर्यञ्च दीर्घकालोपदेशिकी संज्ञायाले है ।
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(४) चौथे विभाग में विशिष्ट श्रुतज्ञान विषक्षित है। यह शान इतना शुद्ध होता है कि सम्यक्त्वयोंके सिवाय अन्य जीवोंमें इसका संभव नहीं है । इस विशुद्ध ज्ञानको 'दृष्टिवादोपदेशिको संज्ञा' कहा है।
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शास्त्र में जहाँ कहीं संशी असंशीका उल्लेख है, वहाँ सबजगह असंज्ञीका मतलब भोषसंज्ञावाले और हेतुवादोपदेशिकी संज्ञावाले जीवों से है । तभा संज्ञीका मतलब सब जगह दीर्घकालोपदेशिकी शावालों से है ।
इस विषयका विशेष विचार तत्त्वार्थ अ० २, सू०२५ वृत्ति, नन्दी सू० ३६. विशेषावश्यक गा० ५०४ - ५२६ और लोकप्र०, स०३ श्लोक ४४२-४६३ में है।
संज्ञी असंजी के व्यवहार के विषय में दिगम्बर सम्प्रदाय में श्वेताम्बर की अपेक्षा थोड़ा सा भेद है । उसमें गर्भज तिर्यञ्चोंको संशीमात्र न मानकर संज्ञी तथा असंशी माना है । इसीतरह संमूमि तिर्यञ्चकोसिर्फ असंझी न मानकर संत्री असंज्ञी उभयरूप माना है। (जीव०, ग०७६ ) इसके सिवाय यह बात ध्यान देने योग्य है कि श्वेताम्बर -ग्रन्थ में हेतुवादोपदेशिकी आदि जो तीन संज्ञायें अणित है, उनका विधार दिगम्बरी प्रसिद्ध ग्रन्थों में दृष्टिगोचर नहीं होता ।
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