Book Title: Karmagrantha Part 4
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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कर्मग्रन्थ भाग चार
आकार को 'बाह्यनिर्वृति कहते हैं और ( २ ) भीतरी आकार को 'आभ्यन्तर निवृत्ति' बाह्य भाग तलवार के समान है और आभ्यन्तर भाग तलवार की तेज बार के समान, जो अत्यन्त स्वच्छ परमाणुओं का बना हुआ होता है । आभ्यन्तर निर्वृत्ति का यह पुद्ग्ल स्वरूप प्रज्ञापनासूत्र - इन्द्रियपदकी टीका ० २६ के अनुसार है। आचराङ्गइति गृ० १०४ में उसका स्वरूप चेतनामय बतलाया है ।
आकार के सम्बन्ध में यह बात जाननी चाहिये कि स्वचाकी आकृति अनेक प्रकारको होती है, पर उसके बाह्य और आभ्यन्तर आकार में जुदाई नहीं है। किसी प्राणी की त्वचाका जैसा बाह्य आकार होता है, वैसा हो आभ्यन्तर आकार होता है । परन्तु अन्य इन्द्रियोंके विषय में ऐसा नहीं है:त्वचाको छोड़ अन्य सब इन्द्रियोंके आभ्यन्तर आकार, बाह्य आकारसे नही मिलते | सब जाति के प्राणियों की सजातीय इन्द्रियों के आभ्यन्तर बाकार, एक तरह के माने हुये हैं । जैसे:- कानका माभ्यन्तर आकार, कदम्ब-पुष्पजैसा, आंख का मसूरके दाना जैसा, नाकका अतिमुक्तक के फूल जैसा और जीका छुराजैसा है। किन्तु बाह्य आकार सब जातिमें भिन्न-भिन्न देखे जाते हैं । उदाहरणार्थ:- मनुष्य, हाथी, घोड़ा, बैल, बिल्ली, चूहा आदिके कान, आंख, नाक, जीभ को देखिये |
(ख) आभ्यन्तरनिर्वृतिकी विषय- ग्रहण-शक्तिको 'उपकरणेन्द्रिय' कहते है। (२) भावेन्द्रिय दो प्रकारको है: - (१) लब्धिरूप और (२) उपयोगरूप | (१) मतिज्ञानावरणके क्षयोपशमको बेतना-शक्तिकी योग्यता- विशेषको 'लब्धिरूप भावेन्द्रिय' कहते है । ( २ ) इस लब्धिरूप मावेन्द्रियके अनुसार आत्माकी विषय ग्रहण में जो प्रवृत्ति होती है, उसे उपयोग रूप भावेन्द्रिय' कहते है ।
इस विषयको विस्तारपूर्वक जानने के लिये प्रज्ञापना-पद १५, पृ० २६३/ तत्वार्थ अध्याय २, सू० १७-१८ तथा वृत्ति, विशेषाव०, गा० २६६३२००३ सथा लोकप्रकाश-सर्ग ३ श्लोक ४६४ से आगे देखना चाहिये ।
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