Book Title: Karmagrantha Part 4
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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कर्मग्रन्थ भाग चार
सर्वार्थसिद्धि में और गोम्मटसार के स्थानान्तर में कपायोदय-अनुरंजित योग प्रवृत्ति को लेश्या' कहा है। यद्यपि इस कथन से दसवें गुणस्थान पर्यन्त ही लेश्या का होना पाया जाता है, पर वह कथन अपेक्षाकृत होने के कारण पूर्व कथन से विरुद्ध नहीं है । पूर्व कथन में केवल प्रकृतिप्रदेश बन्ध के निमित्तभूत परिणाम लेश्यारूप से नियमित है और इस कथन में स्थिति अनुभाग आदि चारों बन्धों के निमित्तभूत परिणाम श्यारूप से विक्षित है, केवल प्रकृति- प्रदेश बन्धके निमित्तभूत परिणाम नहीं । यथा:
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"भावलेश्या कषायोदयराञ्जिता योग-प्रवत्तिरिति कृत्वा औदयिकीत्युच्यते ।" सर्वार्थसिद्धि - अध्याय २, सूत्र ६ ।
"जोगपत्ती लेस्सा, कसाय उद्यारंजिया हो । तत्तो दोष्णं कज्जे, गंधचक्क समुद्दि
४८६॥
३५
- जीवकाण्ड
द्रव्यलेश्या के वर्ण - गन्ध आदि का विचार तथा भावलेश्या के लक्षण आदि का विचार उत्तरग्ध्यन, भ० ३४ में है । इसके लिये प्रज्ञापना - लेश्यापद, आवश्यक, लोक प्रकाश आदि आकार ग्रन्य श्वेताम्बरसाहित्य में है । उक्त दो दृष्टन्तों में से पहला दृष्टान्त, जीवकाण्ड गा० ५०६-५०७ में है । लेश्या की कुछ विशेष बातें जानने के लिये जीवकाण्ड का लेण्यामार्गगाधिकार (पा० ४८६ - ५५५ देखने योग्य है |
जीवों के आन्तरिक भावों की मलिनता तथा पवित्रता के तर तम भाव का सूचक या का विचार, जैसा जैन शास्त्र में है। कुछ उसी के समान छह जातियों का विभाग, मङ्गलीगोसाल पुत्र के मत में है, जो कर्म की शुद्धि - अशुद्धि को लेकर कृष्ण-नील आदि छह वर्णों के आधार पर किया गया है । इसका वर्णन, 'दीव निकाय -सामफलसुत्त" में है । "महाभारत" के १२.२८६ में भी छह जीव-वर्ण दिन है, जो उक्त विचार से कुछ मिलते-जुलते हैं ।
"पातञ्जलयोगदर्शन" के ४,७ में भी ऐसी कल्पना है; क्योंकि उसमें कर्म के चार विभाग करके जीवों के भावों की शुद्धि-अशुद्धि पृथकरण किया है। इसके लिये देखिये, दोषनिकाय का मराठी भाषान्तर पृ० ५६ ।
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