Book Title: Karmagrantha Part 4
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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कर्मग्रन्थ भाग चार चौथे ने कहा-"शाखायें भी क्यों काटना ? फलों के गुच्छों को तोड़लीजिये"
___पांचों बोला-"गुच्छों से क्या प्रयोजन ? उनमें से कुछ फलों को ही ने लेना अच्छा है।"
अन्त में छठे पुरुष ने कहा- ये सब विचार निरर्थक हैं; क्योंकि हम लोग जिन्हें चाहते है, वे फन तो नीचे भी गिरे हुये हैं, क्या उन्हीं से अपनी प्रयोजन-सिद्धि नहीं हो सकती है ?"
__ दूसरा:-कोई छः पुरुप धन लूटने के इरादे से जा रहे थे। रास्ते में किसी गाँव को पाकर उनमें से एक बोला:- इस गांव को तहस-नहस कर दो-मनुष्य, पशु, पक्षी, जो कोई मिले, उन्हें मारों और धन लूट लो।"
यह सुन कर दूसरा बोला:- पशु पक्षी जादि को मार : केबल विरोध करने वाले मनुष्यों ही को मारो।" ।
तीसरे ने कहा:--"बेचारी स्त्रियों की हत्या क्यों करना ? पुरुषों को मार दो ।" चौथे ने कहा:-"सब पूरुषों को नहीं जो सशस्त्र हों, उन्हीं को मारो।'
पांच ने कहा-"जो सशस्त्र पुरुष भी विरोध नहीं करते, उन्हें क्यों मारना ।'
अन्त में छठे पुरुष ने कहा:-- किसी को मारने से क्या लाभ? जिस प्रकार से धन अपहरण किया जा सके, उस प्रकार से उसे उठा लो और किसी को मारी मत । एक तो पन लूटना और दूसरे उसके मालिकों को मारना, यह ठीक नहीं।"
इन दो दृष्टान्तों से लेश्याओं का स्वरूप स्पष्ट जाना जाता है। प्रत्येक रष्टान्त के छह-छह पुरुषों में पूर्व-पूर्व पुरुष के परिणाम की अपेक्षा उतरउत्तर पुरुष के परिणाम शुभ, शुभतर और शुभतम पाये जाते हैं-उत्तरउत्तर पुरुष के परिणामों में संक्लेश की न्यूनप्ता और मृदुता की अधिकता पाई जाती है। प्रथम पुरुप के परिणाम की 'कृष्णलेश्या.' दूसरे के परिणाम को 'नीललेश्या', इस प्रकार क्रम से छठे पुरुष के परिणाम का 'शुक्लले क्या' समझना चाहिये । -आवश्यक हारिभद्री वृत्ति पृ० १५ तथा लोक० प्र०, स.३, श्लोक ३६३-३८० ।
लेश्या-द्रव्य के स्वरूप सम्बन्धी उक्त तीनों मत के अनुसार तेरहवें गुणस्थान पर्यन्त भाव-लेश्या का सद्भव समझना चाहिये । यह सिद्धान्त गोम्मटसार-जीवकाण्ड को भी मान्य है; क्योंकि उसमें योग-प्रवृत्ति को लेश्या कहा है । यथा:--
"अयोति छलेस्सामो, सुहतियलेस्सा दु देसविरवतिये तत्ती सुश्का लेस्सा, अजोगिता अलेस्सं तु ॥५३१।।"