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कार्मग्रन्थ भाग चार
प्रथमाधिकार के परिशिष्ट ।।
परिशिष्ट "क"। पृष्ठ ५ के "लेवया" पादपर--
१-लेश्या के (क) द्रव्य और (स) भाव, इस प्रकार दो भेद है। (क)द्रव्यलेश्या,पुद्ग्ल-विशेषात्मक है। इसके स्वरूप के सम्बन्ध में मुख्यतया तीन मत हैं।(१) कर्मवर्गणा-निष्पन्न (२)कर्म-निष्यन्द और(३)योग-परिणाम।
१ले मत का यह मानना है कि लेल्या-द्रव्य, कर्म-वर्गणा से बने हुये है। फिर भी ने आठ कर्म से भिन्न ही हैं: जमा कि कार्मणशरीर । यह मंत उत्तराध्ययन, अ५ ३४ को टीका, धृ० ६५० पर उल्लिखित है।
२ रे मत का आशय यह है f. लेश्या-द्रव्य, कर्म निष्यन्दरूप (बध्यमान कर्म-प्रवाहरूप) है। चौदहवें गुणस्थान में कर्म के होने पर भी उसका निष्पन्दन होने से लेश्या के अभाव की उपपत्ति हो जाती है। यह मत उक्त पृष्ठ पर ही निर्दिष्ट है, जिसको टीकाकार बादिवताल श्रीशान्तिसूरि ने 'गुरवस्तु व्याचक्षसे' कहकर लिखा है।
३रा मत श्रीहरिभदसरि आदि का है। इस मत का आशय श्रीमलयगिरि जी ने पप्रधणा पद १७ की टीका, पृ० ३३० पर स्पष्ट बसलाया है। बे सेश्या-द्रव्य को योगवर्गणा-अन्सर्गस स्वतन्त्र द्रव्य मानते हैं। उपाध्याय थीविनयविजयजी ने अपने आगम-दोहनरूप लोकप्रकाश, सर्ग ३, श्लोक २८५ में इस मत को ग्राह्य ठहराया है।
(ख) भावलेश्या, आत्मा का परिणाम-विशेष है, जी संश्लेश और योग से अनगत है संपलेश के तीव्र,तीव्रतर,तीयतम, मन्द, मन्दतर मम्वतम आदि अनेक भेद होने से वस्तुतः भावलेश्या, असंख्य प्रकार की है तथापि संक्षेप में छह विभाग करके शास्त्र में उसका स्वरूप दिखाया है। देखिये, गा० १२ वी। छह भेदों का स्वरूप समलने के लिये पाास्त्र में नीचे लिखे दो दृष्टान्स दिये गये हैं:पहिला:-कोई छल्ल पुरुष जम्बूफल (जामून) खाने को इच्छा करते हुये चले जा रहे थे, इतने में जम्बवृक्षको देख उनमें से एक पुरुष बोला-'लीजिये, जम्वृक्ष तो आ गया । अब फलों के लिये ऊपर चढ़ने की अपेक्षा फलों से लदी हुई बड़ी-बड़ी शाखा वाले इस वृक्ष को काट गिराना ही अच्छा है।"
यह सुनकर मरे ने कहा--"क्ष काटने से पया लाभ ? केवल शाखाओं को काट दो।"
तीसरे पुरुष ने कहा-"यह भी ठीक नहीं, स्रोटी-छोटी शाखाओं के काट लेने से भी तो काम निकाला जा सकता है?"