Book Title: Karmagrantha Part 4
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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क.मंगन्ध-भाग चार
(४-८)-जीवस्थानों में लेश्या-बन्ध आदि ।
{ दो गाधाओं से । संनिदुगे छलेसअप,-जबायरे पढम चउ ति सेसेसु । सत्तट्ठ बन्धुवोरण, संतुदया अट्ट तेरससु ॥ ७ ॥ संजिदिके षड्लेश्या अप्तिबादरे प्रधमाश्चतस्नस्तिस्रः शेषेषु । सप्ताष्टबन्धोदीरण, सदुदयावष्टानां क्रयोदशसु ॥ ५ ॥
अर्थ-संक्षि-विको-अपर्याप्त तथा पर्याप्त संजि-पञ्चेन्निय मेंछहों लेश्यायें होती हैं । अपर्याप्त बाबर-एके स्त्रिय में कृष्ण आदि पहली चार लेण्यायें पायी जाती हैं । शेष मारह जीवस्थानों में - अपर्याप्त तथा पर्याप्त सूक्ष्म-एकेन्द्रिय, पर्याप्त पावर-एकेन्द्रिय, अपर्याप्त-पर्याप्त रेन्धि य, अपर्याप्त-पर्याप्त त्रीन्द्रिय, अपर्याप्त-पर्याप्त चतुरित्रिय और अपर्याप्त-पर्याप्त असंजि-पञ्चेन्द्रियों में कृष्ण, नीत और कापोत ये तीन लेश्यायें होती है।
पर्याप्त संजी के सिवाय तेरह जीवस्थानों में वन्ध, सात या आठ कर्मका होता है तथा उदोरणा भी सात या आठ फोकी होती है, परन्तु सजा तथा उदय आठ आठ कर्मकि ही होते हैं ॥७।।
भावार्थ-अपर्याप्त तथा पर्याप्त दोनों प्रकार के संशो, छह लेश्याओंके स्वामी माने जाते हैं, इसका कारण यह है कि उनमें शुभ-अशुभ सम तरहके परिणामोंका सम्भव है । अपर्याप्त संशि-पञ्चेन्नियका मतलब करणापर्याप्तसे है। क्योंकि उसी में छह लेपाओं का सम्भव है । लरिष-अपर्याप्त तो सिर्फ तीन लेश्याओं के अधिकारी हैं ।
कृष्ण आदि तीन लेश्याय, सब एकेन्द्रियों के लिये साधारण हैं। किन्तु अपर्याप्त मादर- एकेन्द्रियमें इतनी विशेषता है कि उसनमें सेलोलेश्या भी पायी जाती है। क्योंकि तेजलेश्या वाले ज्योतिषी आधि देव,