Book Title: Karmagrantha Part 4
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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कर्मग्रन्थ भाग खार
मादर- एकेन्द्रिय को- पाँच स्थावर को, पर्याप्त अवस्था में औदारिक, वैक्रिय और क्रियमिश्र, ये तीन योग माने हुये हैं। इनमें से औवारिककाययोग तो सब तरह के एकेन्द्रियों को पर्याप्त अवस्था में होता है, पर वैयि सा वैक्रियो के विषय में यह बात नहीं है। घो योग, "केवल बारवायुकाय में होते हैं; क्योंकि बाबरवायुकायिक जीवों को वैकिलब्धि होती है। इससे वे जब क्रियशरीर बनाते हैं, तब उन्हें क्रियमिश्रकाप्रयोग और वैक्रियशरीर पूर्ण यत्र जाने के ara वैक्रियकाययोग समझना चाहिये । उनका वैक्रियशरीर ध्वजाकार माना गया हैं ।"
१ - "भाचं तिर्यग्मनुष्याणां देवनारक्योः परम् ।
केषांचिल्लब्धिमद्वायु, संज्ञितियं नृणामपि ॥ १४४ ॥ "
१ह
-- लोक प्रकाश सर्गः ३
पहला (दारिक शरीर तिर्यञ्चों और मनुष्यों को होता है; दूसरा ( बैकिस ) शरीर देवों, नारकों, लब्धिवाले वायुकायिकों और लब्धिवाले संज्ञी तिर्यञ्च - मनुष्यों को होता है ।" वायुकायिक को लब्धि-जन्य वैक्रिय शरीर होता है यह बात, लत्त्वार्थ मूल तथा उसके भाष्य में स्पष्ट नहीं है, किन्तु इसका उल्लेख भाष्य की दीवा में है।
"वायोश्च वैक्रियं लब्धप्रत्ययमेव" इत्यादि ।
- स्वार्थ अ० २०४८ को भाष्य-वृत्ति । दिगम्बरीय साहित्य में कुछ विशेषता है । उसमें वायुकायिक के समान तेजःकायिक की भी वैक्रियशरीर का स्वामी कहा है। यद्यपि सर्वार्थसिद्धि में तेजःकायिक तथा वायुकायिक के वैक्रियशरीर के सम्बन्ध में कोई उल्लेख देखने में नहीं आया, पर राजवार्तिक में हैं. -
क्रियिकं देवनारकाणां तेजोवायुकायिकपञ्चेन्द्रि तिग्मनुष्याणां च केषांचित् ॥ " -- तत्त्वार्थ- अ० २, सू० ४६, राजवर्तिक ८ । यही बात गोम्मटसार-जीवकाण्ड में भी हैः-"बादरतेऊबाऊ, पंचिदिय पुण्णमा विगुब्वंति । ओर लिये सरीरं, विगुरुणप्वं हवे जेसि ॥२३२॥"
२ -- यह मन्तच्य श्वेताम्बर दिगम्बर दोनों सम्प्रदायों में समान है:
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