Book Title: Karmagrantha Part 4
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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कर्मग्रन्थ भाग बार
हैं । केवलि समुद्रात की स्थिति आठ समय प्रमाण मानी हुई है; इसके तीसरे चौथे और पाँचवें समय में कार्मण काययोग और दूसरे, छठे तथा सातवें समय में औदारिक मिश्रकाययोग होता है।" "वैि यमिश्र काययोग, पर्याप्त अवस्था में तय होता है, जब कोई वैक्रियलब्धधारी मुनि आदि वैकिशरीर को बनाते हैं।"
आहारककाययोग तथा आहारक मिश्रकाययोग के अधिकारी, 'चतुर्दशधर मुनि है।" उन्हें आहारकशरीर बनाने व त्यागने के समय आहारक मिश्रकापयोग और उस शरीर को धारण करने के समय आहारकाययोग होता है ।" "औदारिककाययोग के अधिकारी, सभी समो पर्याप्त मनुष्य तिर्यन्त और वंक्रियकाययोग के अधिकारी, पर्याप्त देव नारक हैं । "
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" सूक्ष्म एकेन्द्रिय को पर्याप्त अवस्था में औदारिकाययोग हो माना गया है । इसका कारण यह है कि उसमें जैसे मन तथा वचन की सन्धि नहीं है, वैसे ही वंक्रिय आदि लब्धि भी नहीं है । इसलिये वैकिय काययोग आदि का उसमें सम्भव नहीं है ।
दीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और असंज्ञि पञ्चेन्द्रिय इन चार जीवस्थानों में पर्याप्त अवस्था में व्यवहार भाषा-असत्यामृषाभाषा होती है; क्योंकि उन्हें मुख होता है। काययोग, उनमें औदारिक हो होता है। इसी से उनमें दो ही योग कहे गये हैं ।
१ – यही बात भगवान् उमास्वातिने कही है:
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"औदारिकप्रयोक्ता प्रथमाष्ट मस मयययारेमाविष्टः । मिश्रौदारित्रयोक्ता सप्तमपष्ठद्वितीयेषु ॥
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कामणदारीश्योगी, चतुर्थ के पञ्चमे तृतीये च । समयत्रवेऽपि तस्मिन् भवत्यनाहारको नियमात् ॥ २७६ ॥ "
- प्रशमरति अधि० २० ।