Book Title: Karmagrantha Part 4
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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स्थूल शरीर को मदद से योगप्रवृति होती है ।" आदि छहों जीवस्थान औवारिक शरीर वाले ही हैं, अपर्याप्त अवस्था में कार्मणकाययोग के बाद औवारिक मिश्र काययोग ही होता है । उक्त जीवस्थान अपर्याप्त कहे गये हैं । सो विध तथा करण दोनों प्रकार से अपर्याप्त समझने चाहिये ।
अपर्याप्त संजि-पञ्चेन्द्रिय में मनुष्य, तियं देव और नारक सभी सम्मिलित हैं। इसलिये उसमें कार्मणकामयोग और कार्मणकाययोग के बाद मनुष्य और निर्यञ्च की अपेक्षा से औवारिकमिश्रकाप्रयोग तथा देव और नारक की अपेक्षा से क्रियमिश्रकाययोग, कुल तीन योग माने गये हैं ।
गाथा में जिस मतान्तर का उल्लेख है, वह शीलाङ्क आदि आचाप का है । उनका अभिप्राय यह है कि शरीरपर्याप्ति पूर्ण बन जाने से शरीर पूर्ण बन जाता है । इसलिये अन्य पर्याप्सियों की पूर्णता न होने पर भी जब शरीर पर्याप्त पूर्ण बन जाती है तभी से मिश्रयोग नहीं रहता; किन्तु मौवारिक शरीरवालों को औदारिककायोग और क्रियशरीर वालों को वैक्रियकाययोग हो होता है !" इस मतान्तर के अनुसार सूक्ष्म एकेन्द्रिय आदि छह अपर्याप्त जोव स्थानों में कामंण, औवारिक मिश्र और औवारिक, ये तीन योग और
कर्मग्रन्थ भाग चार
सूक्ष्म एकेन्द्रिय इसलिये उनकी
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१ - जैसे
"औदारिकयोगस्तिग्मनुजयोः शरीरपर्याप्तरूध्वं तदा
रतस्तु
मिश्रः । " आचारङ्ग - अध्य०२, उ ० १ को टीका पृ० २४ । यद्यपि मतान्तर के उल्लेख में गाथा में 'उरलं' पद ही है; तथापि वह वैकिकाययोग का लक्षक (सुचक ) है | इसलिय क्रियशरीरी देवनारकों को शरीर पर्याप्ति पूर्ण बन जाने के बाद अपर्याप्त दशा में वैक्रियकानयोग समझना चाहिये ।
इस मतान्तर को एक प्राचीन गाया के आधार पर श्रीमनिरिजी ने पञ्चसंग्रह द्वा॰ १. गा० ६-७ की वृति में विस्तारपूर्वक दिया है ।