Book Title: Karmagrantha Part 4
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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कर्मग्रन्थ भाग चार
( २ ) - जीवस्थानों में योगं । [ वो गाथाओं से । ] अपत्तछषिक कम्सुर, लमोसजोगा अपज्जसंनीसु । ते सविजयमीस प्रसु तणु पज्जेसु उरलमन्ने || ४ ||
अपर्याप्तषट् के कार्मणौदारिकमि वयोगावतसंशिपु । तो सर्व क्रियामिश्रावेषु तनुपर्याप्तेष्वौदारिकमन्ये ॥४॥
१५.
अर्थ - अपर्याप्त सूक्ष्म एकेन्द्रिय, अपर्याप्त बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त विकसत्रिक और अपर्याप्त असंति पञ्चेन्द्रिय, इन वह प्रकार के जीवों में कामंक और औतारिकमिश्र, ये दो ही योग होते हैं । अपर्याप्त संज्ञि-पश्रिय में कामंण, औदारिकमिश्र और वैक्रियमिश्र, ये तीन योग पाये जाते है । अन्य आचार्य ऐसा मानते है कि उक्त सातों प्रकार के अपर्याप्त जीव, जब शरीरपर्याप्ति पूरी कर लेते हैं. तब उन्हें मौवारिक काययोग हो होता है, औदारिकमिश्र नहीं" ॥
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भावार्थ - सूक्ष्म एकेन्द्रिय आदि उपर्युक्त छह अपर्याप्त जीवस्थानों में कार्मण और औवारिकमिश्र दो ही योग माने गये हैं। इसका कारण यह है कि सब प्रकार के जीवों को अन्तराल गति में तथा जन्म-ग्रहण करने के प्रथम समय में कार्मणयोग ही होता है; क्योंकि उस समय ओदारिक आदि स्थूल शरीर का अभाव होने के कारण योग प्रवृत्ति केवल कार्मणशरीर से होती है । परन्तु उत्पत्ति के दूसरे समय से लेकर स्वयोग्य पर्याप्तियों के पूर्ण वन जाने तक मिश्रयोग होता है; क्योंकि उस अवस्था में कार्मण और औवारिक आदि
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१- यह विषय पञ्चस्ता० द्वा०] १. गाव. ६-७ में है ।
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