Book Title: Karmagrantha Part 4
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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कर्मग्रन्थ भाग चार
अपर्याप्त तथा पर्याप्त सूक्ष्म एकेन्द्रिय आवि चपयुक्त शेष सात जोवस्थानों में परिणाम ऐसे संक्लिष्ट होते हैं कि जिससे जनमें मिथ्यात्व के सिवाय अन्य किसी गुणस्थान का सम्मय नहीं है ॥३॥
"मणकरण केलिणो वि अत्यि, तेन संनिणो भन्नति, मनोविन्नाणं पहुच्च से संनिणो न भवति ति ।"
केवली को भी द्रव्यमन होता है. इससे वै संजी कहे जाते हैं, परन्तु मनोज्ञान की अपेक्षा से वे संज्ञी नहीं है । केवली अवस्था में द्रव्यमानके सम्बन्ध से संजित्व का व्यवहार गोम्मटसार जीवकाण्ड में भी माना गया है । यथा -
"मणसहियाणं वयणं, बिटु तप्पुष्यमिदि समोगन्हि । उत्तो मणोक्यारे, -णिविय णाणेण होणमिह ।।२२७।। अंगोवंगदयादो, वस्वमपट्ट जिणि वचंम्हि । मणवरगण खंषाण, आगमणा दो मण जोगो ॥२२८।।
संयोगीवावली गुणस्थान में मन न होने पर भी बचन होने के कारण उपचार से मन माना जाता है; उपचार का कारण यह है कि पहले गुणस्थानों में मनवालों को वचन देखा जाता है ॥२२॥
जिनेश्वर को भी द्रव्यमान के लिये अङ्गोपाङ्ग नामवमं के उदय से मनोवगंणा के स्कन्धों का आगमन हुआ करता है। इसलिये उन्हें मनोयोग कहा है ॥२२॥