Book Title: Karmagrantha Part 4
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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कर्मग्रन्थ भाग चार
अपर्याप्त बादर एकेन्द्रिय आदि उक्त पांच जीवस्थानों में दो गुणस्थान और लग्-ि अपर्याप्त बावर एकेन्द्रिय आवि पोषों में पहला ही गुणस्थान समझना चाहिये ।
बादर एकेन्द्रिय में वो गुणस्थान कहे गये हैं सो भी सब बावर एकेत्रियों में नहीं किन्तु पृथिवीकायिक, जलकाक और वनस्पतिकायिक में क्योंकि तेजःकायिक और वायुकायिक जीव, चाहे वे बादर हों पर उनमें ऐसे परिणाम का सम्भव नहीं जिससे सास्वावनसम्यक्त युक्त जीव उनमें पैदा हो सके। इसलिये सूक्ष्म के समान बायर तेज- कायिक- बाधुकायिक में पहला ही गुणस्थान चाहिये । इस जगह एकेन्द्रियों में दी गुणस्थान पाये जाने का कथन है, सो कर्म प्रत्थ के मतानुसार; क्योंकि सिद्धान्त में एकेन्द्रियों को पहला ही गुणस्थान माना है ।
समझना
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अपर्याप्त संज्ञि पञ्चेन्द्रिय में तीन गुणस्थान कहे गये हैं, सो इस अपेक्षा से कि जब कोई जीव चतुथं गुणहयान सहित मर कर संज्ञिपञ्चेन्द्रियरूप से पैदा होता है तब उसे अपर्याप्त अवस्था में चौथे ' गुणस्थान का सम्भव है । इस प्रकार जो जीव सम्यक्त्वका त्याग करता हुआ सास्वादन भाव में वर्तमान होकर संज्ञिपञ्चेन्द्रियरूप से पैदा होता है, उसमें शरीर पर्याप्त पूर्ण न होने तक दूसरे गुणस्थाम कर सम्भव है और अन्य सब संज्ञि पञ्चेन्द्रिय जीवों को अपर्याप्त अबस्था में पहला गुणस्थान होता ही है । अपर्याप्त संज्ञि पञ्चेन्द्रिय में तीन
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१ - - देखिये ४३ वीं गाथा की टिप्पणी ।
२ - गोम्मटसार में तेरहवें गुणस्थान के समय केवलसमुद्रात अवस्था में योग की अपूर्णता के कारण अपर्याप्तता मानी हुई है, तथा छरे गुणस्थान के समय भी आहारकमिश्र काययोग दशा में आहारक शरीर पूर्ण न बन जाने तक अपना मानी हुई है। इसलिये गोम्मटसार जीन० गा० ११४ - ११६ ) में नित्यपर्याप्त और श्वेताम्बरसम्प्रदाय प्रसिद्ध