Book Title: Karmagrantha Part 4
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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कर्मग्रन्थ भाग चार
है कि यदि ये संख्यातीत इकट्टे हों तब भी इन्हें भी देख नहीं सकती: अत एल इनको व्यवहार के अयोग्य कहा है।
बावर एकेन्द्रिय जीव के हैं, जिनको बाबर नामकर्म का उदय हो। ये जीव, लोक के किसी किसी भाग में नहीं भी होते; जैसे, अविससोने, चांदी आदि वस्तुओं में । यद्यपि पृथिवी-काधिक आदि वावर एकेन्द्रिय जीव ऐसे हैं, जिनके अलग अलग शरीर, आंखों से नहीं चीखते; तथापि इमका शारीरिक परिणमन ऐसा काबर होता है कि जिससे वे समुवायरूप में विखाई देते हैं । इसी से इन्हें व्यवहार-योग्य फहा है । सूक्ष्म या बादर. समो एकेन्द्रियों के इन्द्रिय, केवल स्वचा होती है । ऐसे जीव, पृथिवीकायिक आदि पांच प्रकार के स्थावर ही हैं।
तोनिद्रय थे हैं, जिनके स्वचा, जीभ, ये वो इन्द्रियाँ हों; ऐसे जीव शख, सीप, कृमि आदि हैं।
श्रीन्नियों के स्थमा, जीभ, नासिका, ये तीन इन्द्रियां है। ऐसे जीव , खटमल आदि हैं।
चतुरस्तियों के उक्त तीन और आंख, ये घार इन्द्रियाँ हैं । भौरे, बिच्छू आषि की गिनती पतुरिन्त्रियों में ।।
पञ्चेन्धियों को उक्त चार इन्द्रियों के अतिरिक्त काम भी होता है। मनुष्य, पशु, पक्षी आदि पञ्चेन्द्रिय हैं । पञ्चेन्निय वो प्रकार के हैं - (१) असंक्षी और १२) संजी। असंशी वे है, जिन्हें संज्ञा न हो । संक्षी वे है, जिन्हें संज्ञा हो। इस जगह संज्ञा का मतलम उस मानस शक्ति से है, जिससे किसी पवार्थ के स्वभाष का पूर्वापर विचार म मनुसम्मान किया जा सके ।
हीन्द्रिय से लेकर पञ्चप्रिय पर्यन्त सब तरह के जोन भावर तथा बस ( चलने-फिरने वाले ) ही होते हैं।
१-- देखिये, परिशिष्टम' । . ... । २- देखिये। परिशिष्ट 'ग'. . . . . :! .