Book Title: Karmagrantha Part 4
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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कर्म ग्रन्थ भाग चार
(१)-जीवस्थान-धिकार।
जीवस्थान । इह सुहमन्त्रायरेगि, दिबितिचउअसंनिसनिधिदी । अपजत्ता पज्जता, कमेण च दस जियट्ठाणा ॥२॥
इस सूक्ष्मवादरैकेन्द्रियदि त्रिचतुरसंशिपञ्चेन्द्रियाः ।
अपत्तिा; पताः , क्रमण चतुर्दश जीवस्थानानि ॥ २ ॥ अर्थ- इस लोक में सूक्ष्म एकेन्द्रिय, बादर एफेन्द्रिय,न्द्रिय, श्रीन्द्रिय, चतुररिन्द्रिय, असं शिपञ्चेन्द्रिय और संज्ञिपञ्चेन्द्रिय, ये सातों भेद पर्याप्त अपर्याप्तरूप से दो दो प्रकार के हैं. इसलिये जोध के कुल स्थान ( भेद ) चौवह होते हैं ॥ २ ॥
भावार्थ- यहां पर जीव के चौदह मेव विखाये है, सो संसारी अवस्था को लेकर । जीवत्वरूप सामान्य धर्म को अपेक्षा से समानता होने पर भी व्यक्ति की अपेक्षा से जीव अनन्त हैं। इनकी कर्म-जन्य अवस्थायें भी अनन्त हैं। इससे व्यक्तिशः ज्ञान-सम्पावन करना छास्थ के लिये सहज नहीं। इसलिये विशेषदर्शी शास्त्रकारों ने सूक्ष्म ऐकेन्वियित्व आवि जाति की अपेक्षा से इनके चौवह वर्ग किये हैं, जिनमें सभी संसारी जीवों का समावेश हो जाता है ।
सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीव के हैं, जिन्हें सूक्ष्म नामकर्म का उदय हो । ऐसे जीव सम्पूर्ण लोक में व्याप्त हैं। : नफा शरीर इतना सूक्ष्म होता
१- यही गाथा प्राचीन चतुर्थ वर्मग्रन्ध में ज्यों की त्यों है । २--ये भेद, पनसंग्रह द्वार २, मा० ८२ में हैं।