Book Title: Karmagrantha Part 4
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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(११) मिध्यात्व अवि जिन वैभाषिक परिणामों से कर्म-योग्य पुद्गल, कर्म-रूप में परिणत हो जाते हैं, उन परिणामों को 'बन्धहेतु' कहते हैं ।
(१२) पदार्थों के परस्पर न्यूनाधिक भाव को 'अल्पबहुत्व' कहते हैं । (१३) जीव और अजीव की स्वाभाविक या वैभाविक अवस्थाको 'भाव' कहते हैं।
(१४) संख्यात, असंख्यात और अनन्त, ये तीनों पारिभाषिक संज्ञायें हैं ।
विषयों के क्रम का अभिप्राय
सबसे पहले जीवस्थान का निवेश इसलिये किया है कि यह सबमें मुख्य है, क्योंकि मार्गणास्थान आदि अन्य सब विषयों का विचार जीव को लेकर ही किया जाता है। इसके बाद मार्गणास्थान के निर्देश करने का मतलब यह है कि जीव के व्यवहारिक या परमाfue स्वरूप का बोष किसी-न-किसी गति आदि पर्याय के ( मार्गणास्थान के द्वारा हो किया जा सकता है। मार्गशास्थान के पश्चात् गुणस्थान के निवेश करने का मतलब यह है कि जो जीव मार्गेणास्थानवर्ती हैं, वे किसी-न-किसी गुणस्थान में वर्तमान होते ही हैं।
कम्माणं जाए, करणविसेसेण विश्वचयभावे ।
जं उदया बलियाए पवेसण मुदीरणा ऐह ।। ३२ ।।
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बंधण संकमल - तल हक मस्स स्वअविणासो |
निज्ञ्जरण संकमेहि, सम्भावो जो थ सा सत्ता ॥ ३३ ॥
१- आत्मा के कर्मोदय-जन्य परिणाम' वैभाविक परिणाम' हैं जैसे क्रोध आदि
२ -- देखिये, आगे गाया ५१-५२ ।
३- देखिये आगे गा० ७३ से आगे ।