Book Title: Karmagrantha Part 4
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
View full book text
________________
जीवस्थान, मार्गणास्थान और गुणस्थान, ये सब जीव को अवस्थायें हैं, तो भी इनमें अन्तर यह है कि जीवस्थान, जाति-नामकर्म, पर्याप्त नामकर्म और अपर्याप्त नामकर्म के श्रीयिक साथ है; मार्गणास्थान, नाम, मोहनीय, ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और बेवनीयकर्म के औदायिक आदि भावरुप तथा पारिणामिक भावरूप हैं और गुणस्थान, सिर्फ मोहनीय कर्म के औदधिक, क्षायोपशमिक ऑपशमिक और क्षायिक भावरूप तथा योग के भावाभावरूप हैं |
(४) चेतना-शक्ति का बोधरूप व्यापार, जो जीव का असाधारण स्वरूप है और जिसके द्वारा वस्तु का सामान्य तथा विशेष स्वरूप जाना जाता है, उसे 'उपयोग" कहते हैं ।
(५) मन, वचन या काय के द्वारा होनेवाला श्रीयं शक्ति का परिस्पन्व -आत्मा के प्रदेशों में हलचल (कम्पन ) - 'योग' है ।
(६) आत्मा का सहजरूप स्फटिक के समान निर्मल है । उसके भिन्न भिन्न परिणाम जो कृष्ण, नील आदि अनेक रंगवाले पुद्गलविशेष के असर से होते हैं, उन्हें 'लेश्या' कहते हैं" ।
(७) मामा के प्रदेशों के साथ कर्म-पुगलों का जो दूध-पानी के समान सम्बन्ध होता है, वही 'बन्ध' कहलाता है । नट, मिध्यात्व आदि हेतुओं से होता है।
१- गोम्मटसार जीवकाण्ड में यही व्याख्या है ।
"बत्थु निमित्तं भावो आवो जीवस्स जो हु उबजोगो ।
सो बुविहो गायष्यो सायारो चैत्र णायारो ॥६७१ ।। "
२ - देखिये, परिशिष्ट 'क'
३. कृष्णादिस्य साचिव्यात्परिणामोऽयमात्मनः ।
स्फटिकस्येव तत्रयं लेश्याशब्दः प्रवर्तते ॥ "
+
यह एक प्राचीन श्लोक है। जिसे श्रीहरिभद्रसूरि ने आवश्यक टीका पृष्ठ
६
* पर प्रमाण रूप से लिया हैं ।