Book Title: Karmagrantha Part 4
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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सकती । मुक्त जीव में निश्चय हष्टि से की गई ध्याख्या घटती है। जैसे:--जिसमें नेतना गुण है, वह 'जीव' इत्यादि हैं।
(२) मार्गणा के अर्थात् गुणस्यान, योग, उपयोग आदि की विधारणा के स्थानों ( विषयों ) को 'मार्गणास्थान' कहते हैं। जीव के गति इन्द्रिय आदि अनेक प्रकार के पर्याय ही ऐसे स्थान हैं, इसलिये ये मागंणास्थान कहलाते हैं।
(३) ज्ञान, वर्शन, चरित्र आदि गुणों की शुद्धि तथा अशुद्धि के तरतम-भाव से होने वाले जीव के भिन्न भिन्न स्वरूपों को गुणस्थान' कहते हैं। १--"तिक्काले च पाणा, इंदियबल माउआणपाणो य । बवहारा सी जीवों, णिच्छमणयदो दुवेदणा जस्स ||३||"
--द्रव्यसंग्रह। २--इस बात को गोम्मटसार-जीवकाण्ड में भी कहा है:--
"जाह व जासु व जीवा, मगिज्जते जहा तहा दिछा । ताओ चोदम जाणे, सुयणाणे मागणी होति ।।१४०॥"
जिन पदार्या के द्वारा अथवा जिन' पर्यायों में जीयों की विचारणा, सर्वज्ञ , दृष्टि के अनुसार की जाने, वे पर्याय 'मार्गणास्थान' है।
___ गोम्मटसार में विस्तार' 'आदेश' और 'विशेष', ये तोन दाब्द मार्गणास्थान के नामान्तर माने गये हैं। --जीना, गा० ३ । ३--इसकी व्याख्या गम्मिटसार-जीवकाण्ड में इस प्रकार है:--
"जेहि दु लक्खिज्जते, उदयादिसु संभवेहिं भावहिं ।
जौवा ते गुणस प्रणा, णिहिट्ठा सनद रसीहि ।।।" दर्शनमोहनीय तधा चारित्रमोहनीय के औदायक आदि जिन भावों (पर्यायों ) के द्वारा जीव का बोध होता है, वे भाव 'गुणस्थान' है।
गोम्मटसार में संक्षेप', 'ओध', 'सामान्य' और 'जीवसमास, ये चार शब्द गुणस्थान के समानार्थक हैं । ---जी०, गा० ३ तथा १० ।