Book Title: Karmagrantha Part 4
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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(८) बंधे हुए फर्म- वलिकों का विपाकानुभव ( फलोदय ) "उदय" कहलाता है। कभी तो भाषाकाल पूर्ण होने पर होता है और कभी नियत अबाधाकाल पूर्ण होने के पहले ही अपना' आणि करण से होता है ।
(e) जिम कर्म- दलिकों का उदयकाल न आया हो उन्हें प्रयत्नविशेष से खींचकर दम्कालीन स्थिति से हटाकर उपलिका में बरखिल करना 'उदीरणा' कहलाती है।
(१०) बन्धन' या संक्रमण' करण से जो कर्म- पुद्गल, जिस कर्मरूपमें परिणत हुये हों, उनका, निर्जरा" या संक्रम' से रूपान्तर न होकर उस स्वप में बना रहना 'सरत है ।
१ - बंधा हुआ कर्म जितने काल तक उदय में नहीं आता, वह 'अबाधाकाल' है ।
२ - कर्म के पूर्व वद्ध स्थिति और रस, मिस वीर्य-शक्ति से घट जाते हैं, उसे अपनाकरण कहते हैं ।
३- जिस वीयं विशेष से कर्म का बन्च होता है, वह 'बन्धनकरण' कह लाता है ।
४- जिस वीर्य विशेष से एक कर्म का अन्य सजातीय कर्मरूप में संक्रम होता है, वह 'संक्रमणकरण' है ।
५ -- कर्मपुद्गलों का आत्म-प्रदेशों से अलग होना 'निर्जरा' है ।
६ - एक कर्म रूप में स्थित प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश का अन्य सजातीय कर्मरूप में बदल जाना 'संक्रम' है ।
७- बन्ध, उदय, उदीरणा और सत्ता के ये ही लक्षण यथाक्रम से प्राचीन चतुर्थ कर्मग्रन्म के भाष्य में इस प्रकार है.
"जीवस्त पुण्गलाण व जुग्गाण पत्परं अमेएवं
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मिच्छ ( इहेउ विशिया, जा घडणा इश्य सो बंधो ॥ ३० ॥ करणेण सहावेगम णिइवचए तेसिमुरत्ताणं ।
जं बेवणं विवागेन सोउ उदओ बिणामिहिओ ।। ३१ ।।