Book Title: Karmagrantha Part 4
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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कर्मग्रन्थ भाग चार
एकेन्द्रिय से लेकर पञ्चेन्द्रिय पर्यन्त उक्त सब प्रकार के लो अपर्याप्त', पर्याप्त इस तरह वो दो प्रकार के होते हैं । (क) अपर्याप्त दे हैं, जिन्हें अपर्याप्त नामकर्म का उदय हो । (ख) पर्याप्त वे हैं, जिनको पर्याप्त नामकर्म का उदय हो ||२||
( १ - जीवस्थानों में गुणस्थान ।
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बायरअसंनिविगले, अज्जि पदमविय संनि अपअत्तं । अजयजुअ संनि पज्जे, सव्वगुणा मिच्छ सेसेसु || ३ || बादरासंज्ञिविकलेऽप्पर्याप्त प्रथमादिक संज्ञित्यपर्याप्ते | अयुतं संज्ञिनि पर्याप्ते, सर्वगुणा मिध्यात्वं दशेषेषु ॥ ३ ॥ अर्थ - अपर्याप्त वावर एकेन्द्रिय, अपर्याप्त असंशिपञ्चेन्द्रिय और अपर्याप्त विकलेन्द्रिय में पहला दूसरा दोही गुणस्थान पाये जाते हैं । अपर्याप्त संशिपचेन्द्रिय में पहला, दूसरा और चौथा, ये तोन गुणस्थान हो सकते हैं। पर्याप्त संज्ञिपञ्चेन्द्रिय में सब गुणस्थानों का सम्भव है। शेष सात जीवस्थानों में- अपर्याप्त तथा पर्याप्त सूक्ष्म एकेन्द्रिय, पर्याप्त बाहर एकेन्द्रिय, पर्याप्त असज्ञि पञ्चेन्द्रिय और पर्याप्त विकलेनिय श्रय में पहला हो गुणस्थान होता है ॥ ३ ॥
भावार्थ - बावर एकेन्द्रिय, असंज्ञिपञ्चेन्द्रिय और तीन विकलेविय, इन पांच अपर्याप्त जीवस्थानों में दो गुणस्थान कहे गये हैं; पर इस विषय में यह जानना चाहिये कि दूसरा गुणस्थान करण-अपर्याप्तमें होता है, लकिन अपर्याप्त में नहीं; क्योंकि सास्थावनसम्यग्दृष्टि वाला जीव लब्धि अपर्याप्तरूप से पैदा होता ही नहीं । इसलिये करण
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१ - देखिये, परिशिष्ट व