Book Title: Karmagrantha Part 4
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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कर्मग्रन्थ भाग घार
अपर्याप्त संक्षि-पञ्चेन्द्रिय में उक्त तीन तथा वैशियमिश्र और क्रिय, कुल पनि योग समझने चाहिये ।"
उक्त मतान्तर के सम्बन्ध में टीफा में लिखा है कि यह मत युक्तिहोन है। क्योंकि केवल शरीरपर्याप्ति बन जाने से शरीर पूरा नहीं बनता; किन्तु उसकी पूर्णता के लिये स्त्रोग्य सभी पर्याप्तियों का पूर्ण बन जाना आवश्यक है। इसलिये शरीरपर्याप्ति के बाद भी अपर्याप्त-अषस्था पर्यन्त मिश्र योग मानना युक्त है ॥४॥
सन्चे सनिपजत्ते, उरलं सुहमे सभासु तं चउसु । बायरि सविउतियदुर्ग, पजस निसु बार उवओगा ॥५॥ सयें संशिनि पर्याप्त औदारिकं सक्ष्मे सभाष तच्चतुषु । बादरे सर्व कियदि कं, पर्याप्तसंजिषु द्वादशोपयोगाः ।।५
अर्थ-पर्याप्त संज्ञी में सब योग पाये जाते हैं। पर्याप्त सूक्ष्मएकेन्द्रिय में औवारिफकाययोग ही होता है । पर्याप्त विकलेन्द्रिय-निक और पर्याप्त असजि-पञ्चेन्द्रिय, इम चार जीवस्थामों में औवारिक और असत्यामृषामचन, ये दो योग होते हैं। पर्याप्त वावर-एकेन्द्रिय में औवारिक, 4क्रिय तथा नियमिन, ये तीन कारयोग होते हैं । ( जीवस्थानों में उपयोग:-) पर्याप्त संझि-पञ्चेन्द्रि य में सब जम्योग होते हैं ॥५॥
भावार्थ-"पर्याप्त संशि-पञ्चेन्द्रिय में छहों पर्याप्ति होती है" इसलिये उसको योग्यता विशिष्ट प्रकार की है। अतएव उसमें चारों बचनयोग, चारों मनोयोग और सातों काययोग होते हैं ।
"यद्यपि कार्मण, औदारिकमिश्र और वैश्यिमिन, ये तीन योग अपप्ति-अवस्था-भावी हैं। तथापि घे संक्षि-पञ्चेन्द्रियों में पर्याप्त-अवस्था में भी पाये जाते है ।" कार्मण तथा औदारिकमिश्रकाययोग पर्याप्तअवस्था में तब होते हैं, जबकि केवली भगवान् केलि-समुहात रचते