Book Title: Karmagrantha Part 4
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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जीवस्थान आदि विषयों की व्याख्या | (१) जीवों के सूक्ष्म बायर आदि प्रकारों (भेदों) को 'जीवस्थान', कहते हैं। द्रव्य और भाव प्राणों को जो धारण करता है, वह 'जीव' है । पाँच इन्द्रियाँ तीन वल, श्वासोच्छवास और आयु, ये दस प्रथपप्राण हैं, क्योंकि वे बड़ और कर्म- जभ्य हैं। ज्ञान, दर्शन आदि पर्याय जो जीव के गुर्गों के ही कार्य हैं, वे भावप्राण हैं। जीव की यह व्याया संसारी वस्था को लेकर की गई है, क्योंकि जीवस्थानों में संसारी जीवों का ही समावेश है। अत एव वह मुक्त जीवों में लग्गू नहीं पड़
चउदसग्गणठणे, मूलपएस बिसद्धि इयरेसु । जियगुणजोगुबओगा, लेसप्पबहु व छठाणा ॥ २ ॥ चउदसगुण ठाणेसु, जिमजोगुवओगलेसबंधा य । बंधुदयुदीरणाओं, संतप्पबहु च दस ठाणा ॥ ३ 11'
१- - जीवस्थान के अर्थ में 'जीबसमास' शब्द का प्रयोग भी दिगम्बरीय
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साहित्य में मिलता है। इसकी व्याख्या उसमें इस प्रकार है:
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'जेहि अया जीवा, गज्जते बहुविहा वि तज्जादी ।
ते
पुण संगहिदत्था, जीवसमासा त्ति विष्णेया ॥७०॥ तसच दुजुगाणमज्झे, 'अविरुद्धेहि जुबजादिकम्मुदये । जीवसमासा होंति हु, तबभवसारिच्छसामण्णा ॥ ७१ ॥
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-- जीवकाण्ड |
जिन धर्मों के द्वारा अनेक जीव तथा उनकी अनेक जातियों का बोष होता है, वे 'जीवसमास' कहलाते हैं ॥७०॥ तथा स, बादर, पर्याप्त और प्रत्येक युगल में से अविरुद्ध नामकर्म (जैसे-सूक्ष्म से अविरुद्ध स्थावर) के उदथ से युक्त जाति नामकर्म का उदय होने पर जो कता सामान्य जीवों में होती है, वह 'जीवसमास' कहलाता है ।। ७१ ॥
कालक्रम से अनेक अवस्थाओं के होने पर भी एक ही वस्तु का जो पूर्वापर सादृश्य देखा जाता है, वह 'ऊर्ध्वता सामान्य है । इससे उलटा एक समय में ही अनेक वस्तुओं की जो परस्पर समानता देखी जाती है, वह 'तिर्यक्सामान्य' है ।
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