Book Title: Karmagrantha Part 4
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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उपाध्याय श्रीयशोविजयजी ने अपनी पतञ्जलसूत्र वृति में वृत्तिसंशय शब्द की उक्त व्याख्या की अपेक्षा अधिक विस्तृत व्याख्ण की है उसमें बुति का अर्थात् कर्मसंयोग को योग्यता का संभय - ह्रास, जो प्रथम से शुरू होकर चौदहवें गुणस्थान में समाप्त होता है, उसी को वृतिसंक्षय कहा है और शुल्कध्यान के पहले वो मेदों में सम्प्रज्ञात का तथा अन्तिम दो मेवों में असम्प्रज्ञात का समावेश किया है ।
योगजन्य विभूतियाँ:
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योग से होनेवाली ज्ञाम, मनोवल वचनबल, शरीरबल आवि सम्वन्धिनी अनेक विभूतियों का वर्णन पातञ्जल दर्शन में है। जैन, शास्त्र में वैकियल ब्धि, आहारकलब्धि, अवधिज्ञान मनःपर्याय, ज्ञान आदि सिद्धियाँ वर्णित हैं, सो योग का ही फन है ।
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सू०
१५, ३४.
बौद्धदर्शन में भी आश्मा को संसार, मोक्ष आदि अवस्थाएं मानी हुई है । इसलिये उसमें आध्यात्मिक क्रमिक विकास का वर्णन होना स्वाभाविक हैं । स्वरूपोन्मुख होने की स्थिति से लेकर स्वरूप की पराकाष्ठा प्राप्त कर लेने तक की स्थिति का वर्णन बौद्ध प्रन्थों में है, जो
सू० पे० सू० पे०
६. २, २२.
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* द्विविषोऽत्मयमध्यात्मभावनाध्यानसमतावृत्तिसंक्षयभेदेन पञ्चधोक्तस्य योगस्य पञ्चमभेदेऽवतरति" इत्यादि,
देखिये, तीसरा विभूतिपाद ।
1 देखिये, आवश्यक नियुक्ति, गा० ६६ और ७० ।
+ देखिये, प्रो० सि० वि०
-पाद १, सू० १८ |
राजवाड़े - सम्पादित मज्झिमनिकाय:
पे० सु० पे०
४,
४८. १०