Book Title: Karmagrantha Part 4
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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पूर्वसेवा आदि शब्दों की व्याख्या:
[१] गुरु देव आदि पूज्यवर्ग का पूजन, सदाचार, तप और मुक्ति के प्रति द्वेष, यह 'पूर्वसेवा' कहलाती है। [२] उचित प्रवृतिरूप अणुव्रत महाव्रत थुक्त होकर मंत्री आदि भावनापूर्वक जो शास्त्र - नुसार तत्व-चिन्तन करना, वह 'अध्यात्म ' * है । [३] अध्यात्म का बुद्धिसंगत अधिकाधिक अभ्यास हो भावना' । है । [४] अभ्य विषय के संचार से रहित जो किसी एक विषय का धारावाही प्रशस्त सूक्ष्मबोध हो, वह 'ध्यान [५] अविधा से कल्पित जो इष्टअनिष्ट वस्तुएं हैं, उनमें विवेकपूर्वक तस्थ-बुद्धि करना अर्थात् इष्टस्व-अनिष्टस्व की भावना छोड़कर उपेक्षा धारण करमा 'समता' + है । [६] मन और शरीर के संयोग से उत्पन्न होने वाली विकल्परूप तथा चेष्टारूप वृत्तियों का निर्मूल नाश करना 'वृत्तिसंक्षय' X है ।
*"औचित्यान्द्रत्तयुक्तस्य वचनात्तस्वचिन्तनम् |
मादिभाव संयुक्त मध्यात्मं तद्विदो विदुः ॥ २ ॥"
— योगभेदद्वात्रिंशिका |
अभ्यास वृद्धिमानस्य, भावना बुद्धिसंगतः । निवृत्तिरशुभाभ्यासाद्भाववृश्चि तत्फलम् ॥ e ॥”
- योगभेदात्रिशिका |
उपयोगे विजातीय, प्रत्ययाव्यवधानभाक् । शुकप्रत्ययो ध्यानं, सूक्ष्माभोगसमन्वितम् ॥ ११७"
- योगभेदद्वात्रिंशिका |
+ "व्यवहारकुष्टयोचे रिष्टानिष्टेषु वस्तुषु । कल्पितेषु विवेकेन, तत्स्वधीः समतोच्यते ग२शा"
-- योगभेदद्वात्रिशिका |
X"विकल्य स्पन्दरूपाणां वृत्तीनामन्यजन्मनाम् । अपुनर्भावतो रोषः प्रोच्यते वृत्तिसंक्षयः ||२४||
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- योगभेदात्रिशिका |