Book Title: Karmagrantha Part 4
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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स्थान को पाकर इतना अधिक आत्मबल प्रकट करते हैं कि अन्त में वे मोह को सर्वथा क्षीण कर बारहवें गुणस्थान को प्राप्त कर ही लेते हैं ।
जैसे ग्यारहवाँ गुणस्थान अवश्य पुनरावृत्तिका है, जैसे ही बार हवा गुणस्थान अपुनरावृत्तिका है। अर्थात् ग्यारहवें गुणस्थान को पानेवाला आत्मा एक बार उससे अवश्य गिरता है और बारहवें गुणस्थान को पानेवाला उससे कदापि नहीं गिरता बल्कि ऊपर को ही चढ़ता है। किसी एक परीक्षा में नहीं पास होने वाले विद्यार्थी जिस प्रकार परिश्रम व एकाता से योग्यता बढ़ाकर फिर उस परीक्षा को पास कर लेते हैं; उसी प्रकार एक बार मोह से हार खाने वाले आत्मा भी अप्रमत्त-भाव व आत्म-चल की अधिकता से फिर मोह को अवश्य क्षीण कर देते हैं। उक्त दोनों श्रेणिवाले आत्माओं करे तर सम भावापन्न आध्यात्मिक विशुद्धि मानों परमात्म-वि-रूप सर्वोच्च भूमिकापर चढ़ने की दो नसेनियाँ हैं जिनमें से एक को जैनशास्त्र में 'उपशम श्रेणि' और दूसरी को क्षपकश्रेणि' कहा है। पहली कुछ दूर चढ़ाकर गिरानेवालों और दूसरी चढ़ाने वाली ही है। पहली श्रेणि से गिरनेवाला आध्यात्मिक अधःपतन के द्वारा चाहे प्रथम गुणस्थान तक क्यों न चला जाय, पर उसकी वह अधःपतित स्थिति कायम नहीं रहती । कभी-न-कभी फिर वह डूने बल से और दूनी सावधानी से तैयार होकर मोह-शत्रु का सामना करता है और अन्त में दूसरी श्रेणि की योग्यता प्राप्त कर मोह का सर्वपक्षिय कर डालता है। व्यवहार में अर्थात् आधिभौतिक क्षेत्र में भी यह देखा जाता है कि जो एक बार हार खाता है, वह पूरी तैयारी करके हराने वाले शत्रु को फिर से हरा सकता है ।
परमात्म भाव का स्वराज्य प्राप्त करने में मुख्य बाधक मोह ही है । जिसको नष्ट करना अन्तरात्म-भाव के विशिष्ट विकास पर निर्भर है। मोह का सर्वथा नाश हुआ कि अन्य आवरण जो जंग