Book Title: Karmagrantha Part 4
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
View full book text
________________
भरता हा
गुणस्थानों में पाये जाने वाले प्यामों के उक्त वर्णन से तथा गुणसानों में किये हुए महिरास्म-भाव मावि पूर्वोक्त विभाग से प्रत्येक मनुष्य यह सामान्यतया जान सकता है कि मैं फिस गुणस्थान का अधिकारी हैं। ऐसा जान, गीय अधिकारी श्री नगिक अत्याकांक्षा को अपर के गणस्थानों के लिये उत्तेजित करता है।
दर्शनान्तर के साथ जैनदर्शन का साम्य ।
जो वर्शन, आस्तिक अर्थात् आस्मा, उप्तका पुनर्जन्म, उसकी विकास शीलता तथा मोक्ष-योग्यता मानने वाले हैं, उन सबों में किसी-न-किसी रूप में आत्मा के क्रमिक विकास का विचार पाया जाना स्वाभाविक है । अत एव आर्यावत्तं के जन, वैविक और बौद्ध, इन तीनों प्राचीन वर्शनों में उक्त प्रकार का विचार पाया जाता है । यह विचार जनदर्शन में गुणस्थान के नाम से, बंदिक दर्शन में भूमिकाओं के नाम से और शैद्ध वर्षन में अबस्थाओं के नाम से प्रसिव है। गुणस्थान का विचार, जैसा जनदर्शन में सूक्ष्म तथा विस्तृत है, वैसा अन्य दर्शनों में नहीं है, तो भी उक्त तीनों दर्शनों की उस विचार के सम्बन्ध में बहुत-कुछ समता है। अर्थात् संकेत, वर्णनशंसी आदि की भिन्नता होने पर मी वस्तुतत्व के विषय में तीनों दर्शनों का भेद नहीं के घराबर ही है। वैदिकदर्शन के योगवाशिष्ठ, पातञ्जल योग आदि प्रन्थों में आत्मा की भूमिकाओं का अच्छा विचार है ।
जनशास्त्र में मिथ्यादष्टि या बहिरात्मा के नाम से अज्ञानी जीयका लक्षण बतलाया है कि जो अनात्मा में अर्यात् आत्म-भिन्न जड़तत्त्व में आत्म-बुद्धि करता है, वह मियादष्टि था बहिरात्मा * है । योग
*तत्र मिथ्यादर्शनोदयवशीकृतो मिथ्याष्टि: 1''
-तत्त्वार्ध-अध्याय ६, सू० १, राजपातिक १२ ।।