Book Title: Karmagrantha Part 4
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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कमषाः प्रथम तथा स्मूल मनद्वारा संक्षिप्त प्राप्त करके कल्पनाबाल में आत्मा का विचरण करना संकल्प-विकल्पात्मक ऐनमासिक सृष्टि है। पास मारम-स्वरूप मक्त होने पर सांसारिक पर्यायों का नाबा होना ही कल्प के अन्त में स्थावर-जङ्गमात्मक जगत् का नाम है भारमा अपनी सत्ता भूलकर जड़-सत्ता को स्वसत्ता मामला है, जो अहंस्व ममत्व भावना रूप मोहनीय का उदय और ष का कारण है बही महत्व-ममत्व भावना वैदिक वर्णन शैली के अनुसार कामहेतुभूत भय सता है । उत्पत्ति , वृद्धि विकास, स्वर्ग, नरक मारि जो जीव को अवस्थाएं वैविक पन्थों में वर्णित * हैं, ये हो जन-ष्टि के अनुसार व्यवहार-राशि-गत जीव के पर्याय हैं । (७) योगवाशिष्ठ में । स्वरूप-स्पिति को ज्ञानी का और स्वरूप-वंश को अनामी का लक्षण माना है। जैनशास्त्र में भी सम्यक्झान का और मिग्याष्टि का क्रमशः बही स्वरूप बतलाया है। (८) योगवाशिष्ठ में + जो सम्यकसान का लक्षण
* "उत्पद्यते यो जगति स एव किल वर्धत । स एव मोक्षमा प्रोति, स्वर्ग बा नरकं च वा ॥७॥"
---उत्पत्ति-प्रकरण, स. १ । " स्वरूपावस्थितिमुक्ति, स्तभ्रंशोऽहंस्यवेदनम् । एतत् संक्षेपतः प्रोक्त, लज्जत्वाशत्वलक्षणम् ॥५॥"
-उत्पति-प्रकरण स. ११७ अिहं ममेति मन्त्रोऽयं, मोहस्य जगदाध्यकृत् । अयमेव हि नबपूर्वः, प्रतिमन्त्रोपि मोहजित् ॥१॥"
--मानसार, मोहाष्टक । स्वभावलाभसंस्कार, कारणं ज्ञान मिष्यते । ध्याध्यमात्रमतस्त्वन्ध, तथा चोक्त महात्मना ।।३॥"
--ज्ञानसार, शानाष्टक । +"अनाद्यन्तावभासामा, परमात्मेह विद्यते ।