Book Title: Karmagrantha Part 4
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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प्रकार दो भेद बतलाये हैं, जो शास्त्र के चरम और अचरम-पुद्गलपरावर्त के जैन समानार्थक * हैं। योग के भेव और उनका आधार.___जैनशास्त्र में + (१) अध्यात्म, (२) भावना, (३) ध्यान, १४) समता और {५) वृत्तियक्षय, ऐसे पांच मेव योग के किये हैं । पातजनदर्शन में योग के (१) सम्प्रज्ञात और (२) असम्प्रज्ञात, ऐसे दो मेव है। । जो मोक्ष का साक्षात्-अस्माहित कारण हो अर्थात् जिसके प्राप्त होने के बाद तुर ही मोक्ष हो, वही यधार्थ में योग कहा जा सकता है। ऐसा योग जनशास्त्र के संकेतानुसार वृत्तिसंक्षय और पात जलवर्शन के संकेतानुसार असम्प्रजात ही है । अत एव यह प्रश्न होता है कि योग के जो इतने भेद किये जाते हैं, उनका आधार क्या है? इसका उत्तर यह है कि अलबत्ता वृतिसंक्षय किंवा असम्प्रज्ञात हो मोक्ष का साक्षात् कारण होने से वास्तव में योग हैं। तथापि वह योग किसी बिकासगामी आत्मा को पहले ही पहल प्राप्त नहीं होता, किन्तु इसके पहले विकास-क्रम के अनुसार ऐसे अनेक आन्तरिक धर्मव्यापार करने पड़ते हैं, जो उत्तरोत्तर चिकास को बढ़ाने वाले और अन्त में उस वास्तविक योग तक पहुंचाने वाले होते हैं । वे सब धर्मव्यापार योग के कारण होने से अर्थात् वृनिसंक्षय या असम्प्रज्ञात * ''योजनाद्योग इत्युक्तो, मोक्षेण निमत्त: मः । स निवृत्ताधिकारियां, प्रकृतो लशतो ध्रुवः ।। १४ ।।"
- अपुनर्बन्धद्धा त्रिदिाका । + "अध्यात्म भावना ध्यानं, समता वृत्तिसंक्षयः ।। योगः पञ्चविधः प्रोक्तो, मोगमार्गविशाग्दैः ।। १ ।।
—योगभेदद्वात्रिशिका । ई दखिये, पाद १, मुत्र १० और १८ ।