Book Title: Karmagrantha Part 4
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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निर्वाण + प्रकरण में अज्ञान के फलरूप से कही गई है । (२) योगवाशिष्ठ निर्माण प्रकरण पूर्वार्ध में अविद्या से तृष्णा और तृष्णा से दुःख का अनुभव तथा विद्या से अविद्या का † नाश, यह कम जैसा वर्णित है. वही क्रम जंनशास्त्र में मिध्याज्ञान और सम्यक्ज्ञान के निरुपण द्वारा जगह-जगह वर्णित है । ( ३ ) योगवाशिष्ठ के उक्त प्रकरण में ही जो अविद्या का विद्या से और विद्या का t विचार से नाम बतलाया है, वह जेनशास्त्र में माने हुए मतिज्ञान आदि क्षायोपशमिकज्ञान से मिथ्याज्ञान के नाश और क्षायिकज्ञान से क्षयोपशमिकज्ञान के नाश के समान है । (४) जैनशास्त्र में मुख्यतयः मोह को ही बन्ध का संसार का हेतु माना है। योगवाशिष्ठ में वही
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* "अज्ञानात्प्रसूता यस्मा, ज्जगत्पर्णपरम्पराः । यस्मिंस्तिष्ठन्ति राजन्ते विशन्ति विलसन्ति च
॥५३॥" "आपास मात्र मधुरत्वमन सत्त्व माद्यन्तवस्त्रम खल स्थिति भङ्ग रत्त्वम् । अज्ञानशाखिन इति प्रसूतानि राम, नानाकृतीनि विपुलानि फलानि तानि "
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||६|| पूर्वाद्धं सर्ग ६,
“जन्मपर्वाहिना राधा, विनाशच्छद्रचचुरा । भोगाभोगरसापूर्णा, विचारक घुणक्षता ॥ ११॥"
"मिथः स्वान्ते तयोरन्त, रामानयोरिव । अविधायां विलीनामा, क्षीणे द्वे एव कल्पनं ||२३|| एते राघव लीयेते, अवाप्यं परिशिष्यते । अविद्यासक्षयात् क्षोणो, विद्यापक्षोऽपि राघव ॥ २४४
+ अविद्या संसृतिर्वन्धो माया मोहो महत्तमः । कल्पितानीति नामानि यस्याः सकलवेदिभि ||२०||
सर्ग 5 |
- सर्व ६