Book Title: Karmagrantha Part 4
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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बाल रूपान्तर से कही गई है। उसमें जो वय के अस्तित्व को बम्ध हा कारण कहा है; उसका तात्पर्य हृदय के अभिमान या अध्याय से है 1 (५) जैसे, जैनशास्त्र में ग्रन्थिमेव का वर्णन है वैसे ही योगवाशिष्ठ में भी है। (६) कि प्रत्थों का यह वर्णन कि ब्रह्म माया के संसर्ग से जीवत्व धारण करता है और मन के संसर्ग से संकल्प-विकल्पात्मक ऐखजासिक सृष्टि रचता है तथा स्थावरजङ्गमात्मक जगत् का कल्प के अन्त में नाश होता है हस्यादि बातों की संगति जेमात्र के अनुसार इस प्रकार की जा सकती है अत्मा का अव्यवहार- राशि से व्यवहार राशि में आना ब्रह्म का जीवश्व धारण करना है
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"वष्टुष्टं श्मस्य सत्ताङ्ग, बन्ध इत्यभिधीयते । द्रष्टा दृश्यबलाबद्धो, दश्याऽभावे विमुच्यते ॥२२॥”
- उत्पत्ति-प्रकरण, स० १ ।
सम्माच्चित्तविकल्पस्थ, पिशाची बालक मथा । त्रिनित्यमेपास, द्रष्टारं दृश्यरूपिका ॥३८॥ | "
- उत्पत्ति प्र० स० ३ |
* प्तिभिविच्छेद, स्तस्मिन् प्रति हि मुक्तता । मृगतृष्णाम्बुबुद्धय्यादि, शान्तिमात्रात्मक स्त्वसी ॥२३॥ | " ---उत्पत्ति प्रकरण, स० ११५
+ तत्स्वयं स्वंमेवाशु, संकल्पयति नित्यशः । तेनेत्यमिन्द्रजालश्री, विषसेयं तिच्यते ॥१६॥"
"यदिदं दृश्यते सर्व जगत्स्थावरजङ्गमम् । तत्सुषुप्ताव स्वप्न, कल्पान्ते प्रविनश्यति ||१०॥"
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उत्पत्ति प्रकरण, स० १ ।
स तथाभूत एवाना स्त्रयमन्य इवोल्लसन् । जीवतामुपयाखीव, भाविनाश्री कदर्थितान् ||१३|| "