Book Title: Karmagrantha Part 4
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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योगसम्बन्धी विचार । गुणस्थान और योग के विधार में अन्तर क्या है ? गुणस्थान के किका अमान व ज्ञान-को भूमिकाओं के वर्णन से यह ज्ञात होता है कि आत्मा का आध्यास्मिक विकास किस प्रम से होता है और योग के वर्णन से यह ज्ञात होता है कि मोक्ष का साधन क्या है । अर्थात् गुण. स्थान में आध्यात्मिक विकास के क्रम का विचार मुख्य है और योग में मोक्ष के साधन का विचार मुख्य है। इस प्रकार दोनों का मुख्य प्रतिप्राय प्रस्व भिन्न-भिन्न होने पर भी एक के विचार में दूसरे की छाया अवश्य आ जाती है, क्योकि कोई भी आत्मा मोक्ष के अन्तिम -- अनन्तर या अब्यवहित - साधन को प्रयम हो प्राप्त नहीं कर सकता, किन्तु विकास के प्रमानुसार जनरोत्तर सम्मायिन साधनों को सोपान-परम्परा की तरह प्राप्त करता हुआ अन्त में परम साधन को प्राप्त कर लेता है । अत एव योग के-मोक्ष सापन विषयक विचारमें आध्यात्मिक विकास के क्रम की छाया आ ही जाती है । इसी तरह आध्यात्मिा विकास किस क्रम से होता है, इसका विचार करते समय वात्मा के शुद्ध, शुद्धतर, शुद्धतम परिणाम. जो मोक्ष के साधनमूत हैं, उनकी छाया भी आ ही जाती है। इसलिए गुणस्थान के वर्णन-प्रसङ्ग में योग का स्वरूप संक्षेप में विखा वेना अप्रासनिक नहीं है
योग किसे परते हैं ? :- आत्मा का जो धर्म-यापार मोक्ष का मुख्य हेतु अर्थात् उपाइन कारण तथा बिना बिलम्ब से फल वेने. वाला हो, उसे योग * कहते हैं । ऐसा व्यापार प्रणिधान आदि शुभ * "मोक्षण योजनादव, योगा पत्र निरुच्यते । लक्षणं तेन तन्मुख्य,-हेतुच्यापार तारय तु ।।१॥
-योगलक्षण विशिफा ।