Book Title: Karmagrantha Part 4
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
View full book text
________________
भास्मा का स्वभाव ज्ञानमय है, इसलिये वह चाहे किसी गुणस्थान में क्यों न हो, पर ध्यान से कदापि मुक्त नहीं रहता । म्यान के सामान्य रोति से [१) शुभ और (२) अशुम, ऐसे दो विभाग भोर विशेष रोति से (१) आर्त, (२) रौद्र , (३) धर्म और १४) शुल्क, ऐसे चार विभाग शास्त्र में किये गये है । बार में से पहले दो अशुभ और पिछले वो शुम हैं । पौलिक अष्टि की मुख्यता के किंवा मात्म-विस्मृति के समय जो ध्यान होता है, वह अशुभ और पौरलिक रष्टि की गौणता व आत्मानुसन्धान-वशा में जो ध्यान होता है, वह शुभ है । अशुभ ध्यान संसार का कारण और शुभ ध्यान मोक्षका कारण है । पहले तीन गुणस्थानों में आर्त और रोन, ये वो ध्यान हो तर-तम-माव से पाये जाते हैं। चौथे और पांच गुणस्थान में उस दो ध्यानों के अतिरिक्त सम्यक्त्व के प्रभाव से धर्मध्यान भी होता है। छठे गुणस्थान में आतं और धर्म, ये वो ध्यान होते हैं । सातर्थे गुणस्थान में सिर्फ धर्मथ्यान होता है। आठवें से बारहवें तक पाँच गुणस्थानों में धर्म और शुल्क, ये वो ध्यान होते हैं।
तेरहवें और नौवहवें गुणस्थान में सिर्फ शुल्कध्यान होता है ।। "बामात्मा चान्तरात्मा च परमात्मेति च यः । कायाधिष्ठायकध्येयाः, प्रसिद्धा योगवाङ्मये ॥ १७ ॥ अन्ये मिथ्यात्वसम्यक्त्व, केवलज्ञानमागिनः । मिश्रे च क्षीणमोहे च, विश्रान्तास्ते त्वयोगिनि ॥ १८ ॥
--योगावतारद्वाविशिवा । *"आर्तरौद्रधर्मशुक्लानि ।''-- तत्त्वार्थ-अध्याय ८, सूत्र २६ । + इसके लिये देखिये, तत्त्वार्थ अ०६, सूत्र ३५ से ४० । ध्यानशतक, गा० ६३ ओर ६४ तथा आवश्यक-हारिभद्री टीका पृ० ६०२ । इस विषय में तत्त्वार्ध के उक्त मूत्रों का राजवातिक विशेप देखने योग्य है, क्योंकि उसमें श्वेताम्बर ग्रन्थों से थोड़ा सा मतभेद है।