Book Title: Karmagrantha Part 4
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
View full book text
________________
-२७ -
शास्त्र में 'घातिकम' कहलाते हैं, वे प्रधान सेनापति के मारे जाने के बाब अनुगामी संमिकों की तरह एक साथ तितर-बितर हो जाते हैं। फिर पया देरी, विकासगामी आत्मा तुरन्त हो परमात्म-भाव का पूर्ण आध्यात्मिक स्वराज्य पाकर अर्थात् सच्चिदानम्ह स्वरूप को पूर्णतया व्यक्त करके निरतिशय शाम, चारित्र आदि का लाभ करता है तथा अनिर्वचनीय स्वामाविक सुख का अनुभव करता है। जैसे, पूर्णिमा की रात में मिरभ चन्द्र की सम्पूर्ण कलाएं प्रकाशमान होतो हैं, वैसे ही उस समय आत्मा को चेतना आदि ममी मुख्य शक्तिपाँ पूर्ण विकसित हो जाती हैं । इस भूमिका को अन शास्त्र में तेरहवां गुणस्थान कहते हैं।
इस गुणस्थान में चिरफाल तक रहने के मात्र आत्मा बग्छ रञ्जु के समान शेष आवरणों की अर्थात् अप्रधानभूत अधातिकर्मों को उड़ा कर फेंक देने के लिये सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाती शुल्कभ्यानरूप पवन का माश्रय लेकर मानसिक, वाचिक और कायिक ट्यापारों को सर्वथा रोक देता है । यही आध्यात्मिक विकास की पराकाष्ठा किया चौबहवो गुणस्मान है । इसमें आत्मा समुचिनक्रियाप्रतिपाति शुल्क ज्यान द्वारा सुमेरु की तरह निष्प्रकम्प स्थिति को प्राप्त करके अन्त में शारीर त्याग-पूर्वक व्यवहार और परमार्थ दृष्टि से लोकोत्तर स्थान को प्राप्त करता है। यही निर्गुण ब्रह्मस्थिति * है. यही सर्वाङ्गीण पूर्णता है, यही पूर्ण कृतकृत्यता है, यही परम पुरुषार्थ को अन्तिम सिद्धि * "योगसेन्यामतरत्यागी, योगानन्यडिल्लास्यजेत् । इत्येवं निर्गुणं ब्रह्म, परोक्तमुपपद्यते ।। ७ ।। वस्तुतस्तु गुणः पूर्ण-मनतर्भासने स्वतः । रूपं त्यक्तात्मन: माधो,-निरभ्रस्य विधोरिष ।। - ॥
-- नागन.... ।