Book Title: Karmagrantha Part 4
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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संयम प्राप्त होता है । जिसमें पौलिक भावों पर मूर्दा बिल्कुल नहीं रहती, और उसका सारा समय स्वरूप की अभिव्यक्ति करने के काम में ही खर्च होता है । मह 'जविरति"दाम का गलान है । इसमें आरम-कल्याण के अतिरिक्त लोक-कल्याण की भावना और सवनुकूल प्रवृत्ति मी होती है। जिससे कमी-कभी थोड़ी-बहुत मात्रा में प्रमाप आ जाता है ।
पांचवे गुणस्थान की अपेक्षा, इस छले गुणस्थान में स्वरूपअभिव्यक्ति अधिक होने के कारण यद्यपि विकासमामी आत्मा को आध्यात्मिक शान्सि पहले से अधिक हो मिलती है तथापि बीच-बीच में अनेक प्रमान उसे शान्ति-अनुभव में जो बाधा पहुंचाते हैं, उसको वह सहन नहीं कर सकता । अत एव सर्व-विरति-अमित शान्ति के साथ अप्रमाण-जनित विशिष्ट शान्ति का अनुभव करने की प्रबल लालसा से प्रेरित होकर वह विकासगामी आत्मा प्रमाद का स्वाग करता है और स्वरूप को अभिक्ति के अनुरूल मनन-चिन्तन के सिवाय अन्य सब व्यापारों का त्याग कर देता है। यही 'अप्रमत्तसंयत' नामक सातवां गुणस्थान है । इसमें एक और अप्रमावजन्य उत्कट सुख का अनुभव आत्मा को उस स्थिति में बने रहने के लिये उत्तेजित करता है और दूसरी ओर प्रमाद-जन्य पूर्वकासनाएं उसे अपनी ओर खींचती हैं । इस खींचातानी में विकासमामी आरमा कमी प्रमाद को तन्द्रा और कभी अप्रमाव को जागृति अर्थात् छठे और सात गुणस्थान में अनेक बार जाता आता रहता है । भंवर या बातममी में पड़ा हुआ तिनका इधर से उधर और उधर से इषर जिस प्रकार चलायमान होता रहता है, उसी प्रकार छठे और सातवें गुणस्थान के समय विकासगामी आत्मा अनवस्थित बन जाता है ।
प्रमाव के साथ होने वाले इस आन्तरिक युद्ध के समय विकास