Book Title: Karmagrantha Part 4
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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क्योंकि ऐसा करण-परिणाम * विकासगामी आत्मा के लिये अपूर्व-प्रथम ही प्राप्त है। इसके बाद अस्म-शुद्धि व वोर्योल्सास की मात्रा कुछ अधिक बढ़ती है, तब आत्मा मोह की प्रधानभूत शक्ति -वर्शनमोहपर अवश्य विजय लाभ करता है। इस विजयकारक आत्म-शुद्धि को जैनशास्त्र में "अनियुत्ति करण' कहा है। ज्योकि उस शात्म-शुद्धि के हो जाने पर आत्मा वर्शनमोह पर मयलाभ बिना किये नहीं रहता, अर्थात् वह पीछे नहीं हटता । उक्त सोन प्रकार को आरम-शुद्धियों में दूसरी अर्थात् अपूर्वकरण-नामक शुद्धि हो अत्यन्त संभ है । क्योंकि राग-द्वेष के सोबतम बेग को
- - *"परिणाम विशेषोऽत्र, करणं प्राणिनां मतम् ॥५९६।।"
-लोकप्रकाश, सर्ग ३ । "अवानिवृत्तिकरणेना,-तिस्वच्छाशयात्मना । करोत्यन्त रकरण,--मन्तर्मुहूर्तसमितम् ॥६२७॥ कृते च तस्मिन्निथ्यात्व,-मोहस्थितिद्विधा भवेत् । तत्राद्यान्तरकरणा,-वधस्तन्यपरोवं गा ॥६२८।। तत्राचायां स्थितो मिथ्या. हक् स तद्दलवंदनात् । अतीतायामैवतस्या, स्थितावन्तमुहू ततः ॥६२६॥ प्राप्नोत्यातरकरणं, तस्याबक्षण एव सः ।। सम्यक्त्वमौपरामिक, -मपौगलिकमाप्नुयात् ।।१३।। यथा वनदयो दग्धे,-न्धन: प्राप्यातृणं स्थलम् । स्वयं विध्यापति तथा, मिथ्यात्वोदवानलः ।।६३१।। अवाप्यान्तरकरणं. क्षिप्रं विध्यायति स्वयम् । यदीपशमिफ नाम, सम्यतावं लभतेसुमान् ।।६३२।।''
लोकप्रकाश, समं ३ ।