Book Title: Karmagrantha Part 4
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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शारीरिक और मानसिक दुखों की संवेदना के कारण अज्ञातरूप में ही गिरि-
नीमा * च्याए से आरमा का आवरण कुछ शिथिल होता है और इसके कारण उसके अनुमब तथा बोर्योल्लास-- को मात्रा कुछ रहती है, तब उस विकासगामी आत्मा के परिणामोंकी शुद्धि व कोमलता कुछ बढ़ती है। जिसकी बदौलत वह रागद्वेष को तोवतम-दुर्भव ग्रन्थि को तोड़ने की योग्यता बरत अंशों में प्राप्त कर लेता है । इस अमानपूर्वक दुःख संवेवना-जनित अति अल्प आत्म-शुद्धि को जन शास्त्र में 'यपाप्रवत्तिकरण' f कहा है। इसके बार जब कुछ और भी अधिक आत्म-शुद्धि तथा पौर्योल्लास की मात्रा बढ़ती है तब राग-मेष की उस बुर्भक प्रन्थि का भेवन किया जाता है इस प्रन्थिमेव कारका आत्मशुद्धि को ,अपूर्वकरण' : कहते हैं।
यथाप्रवृत्तकरणं, नन्वनामोगरूपकम् । भवत्यनामोगतश्च. वायं कर्मक्षयोऽङ्गिनाम् ॥ ६७॥ "यथा मिथो घर्षणेन, ग्रावागोऽदि नदीगताः । स्युश्चित्राकृत्यो ज्ञान,-शून्या अपि स्वभावतः ।। ६०८॥ तथा यथाप्रवृत्तात्स्यु,-रप्यनामोगलक्षणात । लघुस्थितिककर्माणो, जन्तवोऽत्रान्तरेऽथ च ॥ ६.६ ॥"
-लोकप्रकाश, सर्ग ३ इसको दिगम्बरसम्प्रदाय में 'अथाप्रवृत्तकरण' कहते है । इस के लिये देखिये, तत्त्वार्थ अध्याय ६ के १ले सूत्र का १३ बां राजवात्तिक । + "तीबधारपर्शकल्पा,ख्यिकारणेन हि ।। आविष्कृत्य परं वीर्य, ग्रन्थिं भिन्दन्ति के चन ॥ ६१८ 11
लोकप्रकाश, सर्ग ३ ।