Book Title: Karmagrantha Part 4
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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प्रथम गुणस्थान में रहने वाले विकासमामो ऐसे अनेक आत्म होते हैं, जो रागद्वेष के तीव्रतम वेग को थोड़ा सा दबाये हुए सो हैं, पर मोह को प्रधान शक्ति को अर्थात् दर्शनमोह को शिथिल किये हुए नहीं होते। इसलिये वे यद्यपि अध्यात्मिक लक्ष्य के सर्वथा अनुकूलगामी नहीं होते तो भी उनका बोध व चरित्र अन्य अविकfar आत्माओं की अपेक्षा अच्छा ही होता है । यद्यपि ऐसे आरमाओं की आध्यात्मिक दृष्टि सर्वथा आत्मोन्मुख न होने के कारण वस्तुतः मिया या हो कहलाती है, तथापि वह सष्टि के समीप ले जाने वाली होने के कारण उपादेय मानी गई है* ।
बोध, वीर्य व चारित्र के तरन्तम भाव की अपेक्षा से उस असत् दृष्टि के चार भेद करके मिथ्या दृष्टि गुणस्थान की अन्तिम अवस्था
दृष्टान्तोपनयश्चात्र जना जीवा भवोऽयी ।
पत्याः कर्मस्थितिर्ग्रन्थि देशस्तित्वह भयास्पदम् ॥ ९२२ ॥
रागद्वेषी तस्करी द्वौ तद्भीतो बतिस्तु सः ।
ग्रन्थि प्राप्यानि दुर्भावा, यो जेष्ठस्थितिबन्धकः ।। ६२३ ।। भोररुद्धस्तु स यस्ताद रागादिबाधितः । ग्रन्थि भिनत्ति यो नैव न चापि वनने ततः ।। ६२४ ।। सत्वमीष्टपुरं प्राप्तो योऽपूर्वकरणाद् द्वतुम् । रागद्वेषायपाकृत्य सम्यग्दर्शन माप्तवान् ॥ ६२५ ।।
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- लोकप्रकाश सगं ३ । ● मध्याखे मन्दतां प्राप्तं मित्राद्या अपि दृष्टमः । मार्गमिखभावेन कुर्वते मोक्षयोजनम् ॥ ३१ ॥
श्रीयशः विजयजी कृत योगावतारद्वात्रिंशिना ।