Book Title: Karmagrantha Part 4
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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का शास्त्र में अच्छा चित्र खींचा गया है । इन चार दृष्टियों में जो वर्तमान होते हैं, उनको सष्टि लाभ करने में फिर देरी नहीं लगती।
सङ्घोष, सद्द्वयं व सचरित्र के तर उम भाव की अपेक्षा से सद्दृष्टि के * भी शास्त्र में चार विभाग किये हैं, जिनमें मिथ्याष्टि त्याग कर अथवा मोह को एक या दोनों शक्तियों को जीतकर आगे a नए सभी विकसित आत्माओं का समावेश हो जाता है । अष दूसरे प्रकार से यों समझाया जा सकता है कि जिसमें आत्मा का स्वरूप भासित हो और उसकी प्राप्ति के लिये मुख्य प्रवृत्ति हो, वह सट इसके विपरीत जिसमें आत्मा का स्वरूप न तो यथावत् मासित हो और न उसकी प्राप्ति के लिये ही प्रवृत्ति हो, वह असतुष्टि । बोध वीर्य व चरित्र के तर-तम-भाव को लक्ष्य में रखकर शास्त्र में दोनों दृष्टि के चार-चार विभाग किये गये हैं, जिनमें सब विकासगामी आत्माओं का समावेश हो जाता है और जिनका वर्णन पड़ने से आध्यात्मिक विकास का वित्र आंखों के सामने नाचने लगता है।
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* - " सच्चासंगनो बोघो दृष्टिः सा वोदिता ।
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मिश्रा. तारा, बला, दीपा स्थिरा कान्ता, प्रभा, परा ॥ २५ ॥ तृणगोमय काष्ठाग्नि, कणोमा । रत्नताराचन्द्राभा, क्रमेण श्वादिसन्निभा ॥ २६ ॥
'आद्याश्वनम्र सापाय माता मिथ्य शामिह ।
तवतो निरपायाच भिन्नग्रन्थेोकाः ॥ २८ ॥
योगावतारात्रिशिका |
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+ इसके लिये देखिये, श्रीहरिभद्रसूरि कृत योगदृष्टिः समुच्चय तथा उपाध्याय यशोविजयजी - कृत २१ से २४ तक की चार द्वात्रिशिकाएँ ।