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आराधना और उसकी टीकायें
माधवसेनोऽजनि मुनिनाथो ध्वंसितमायामदनकदर्थः । तस्य गरिष्ठो गुरुरिव शिष्पस्तत्त्वविचारप्रवणमनीषः ॥ १७ शिष्यस्तस्य महयिसोऽमितगतिर्मार्गत्रयालम्बिनीमेनां कल्मषमोषिणीं भगवतीमाराधनां श्रेयसीम् ॥ १८ ॥ आराधनेषा यदकारि पूर्णा मासैश्चतुर्भिर्न तदस्ति चित्रं । महोद्यमानां जिनभाक्तिकानां सिद्धयन्ति कृत्यानि न कानि सद्यः ॥१९॥ स्फुटीकृता पूर्वजिनागमादियं मया जने यास्यति गौरवं परं । प्रकाशितं किं न विशुद्धबुद्धिना महार्घतां गच्छति दुग्धतो घृतं ॥ २०॥ अन्य टीकायें और टिप्पण
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विजयोदया टीका में पहली गाथाकी टीकाका प्रारंभ करते हुए लिखा हैसिद्धे जयप्पसिद्धे इत्यादि । अत्रान्ये कथयन्ति निवृत्तविषय रागस्य निराकृतसकलपरिग्रहस्य क्षीणायुषस्साधकस्याराधना विधानावबोधनार्थमिदं शास्त्रं तस्याविघ्नप्रसिद्धयर्थमियं मंगलस्य कारिका गाथेति । असंयतसम्यग्दृष्टि संयतासंयतासंयतस्य वा निवृत्तविषयरागता सकलग्रन्थपरित्यागो वास्ति । क्षीणायुष इति चानुपपन्नं । अक्षीणायुषोप्याराधकतां दर्शयिष्यति सूत्रं ' अणुलोमा वा सत्तू चारित्तर्विणासया हवे जस्स ' इति ।
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अर्थात् यहाँ ' अन्य ' कहते हैं कि जिसके विषयाराग निवृत्त हो गये हैं, जो सकल परिग्रहसे रहित है, जिसकी आयु क्षीण हो गई है, उस साधकको आराधनाकी विधि बतलाने के लिए यह शास्त्र है और उसकी विघ्नरहित सिद्धिके लिए यह मंगलकारिका गाथा है । परन्तु जब असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत और प्रमतसंयत आदि भी आराधक या साधक हैं, तब उन्हें निवृत्तविषयराग और निराकृतसकलपरिग्रह कैसे कह सकते हैं ? क्यों कि असंयतसम्यग्दृष्टि और संयतासंयत निवृत्तविषयरागता और सकलपरिग्रहपरित्याग नहीं बन सकता है । इसी तरह क्षीणायुष कहना भी नहीं बन सकता है, क्यों कि ' अनुलोमा वा सत्तू आदि सूत्र में अक्षीणायु भी आराधक होता है, ऐसा दिखलाया है ।
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इस उल्लेखसे ऐसा मालूम होता है कि विजयोदया टीकाकार के सामने कोई टीका थी, जिसमें ' सिद्धे जयप्पसिद्धे' आदि गाथाकी टीकामें साधकको निवृत्त
१ पनेकी प्रतिमें और बम्बईकी प्रतिमें भी ' विराधना' पाठ है ।