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हमारे तीर्थक्षेत्र
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श्वेताम्बर-सम्प्रदायमें पावकगढ़ बहुत ही प्रख्यात रहा है और उसपर समय-समयपर अनेक जैनमन्दिर बनते रहे हैं । उस समयके बहुतसे लोगोंकी दृष्टिमें तो वह पालीताना या शत्रुजयकी जोड़का तीर्थ रहा है । सुप्रसिद्ध जैन मंत्री तेजपालका समय वि० सं० १२७६ से १३०४ तक माना जाता है । शायद उन्होंने सबसे पहले पावकगढ़पर 'सर्वतोभद्र' नामक विशाल जैन मन्दिर बनवाया और तभीसे श्वेताम्बर-सम्प्रदायमें वह तीर्थरूपसे प्रख्यात हुआ। इसके पहले भी वह श्वेताम्बर तीर्थ था, इस प्रकारका कोई प्रामाणिक उल्लेख अभी तक हमार देखने में नहीं आया। __ हमने अपने लेखमें यही लिखा है कि वहाँके प्रतिमा-लेखोंसे अथवा और किसी प्राचीन लेखसे पावागढ़का सिद्धक्षेत्र होना प्रकट नहीं होता । परन्तु उसका यह अर्थ नहीं है कि श्वेताम्बर-सम्प्रदायके समान दिगम्बर-सम्प्रदायवाले इसे पहले पज्य स्थान नहीं मानते थे या उनके प्राचीन मान्दर वहाँ न थे। ___ वहाँके दिगम्बर-मन्दिरोंमें वि० सं० १६४२ से १६६९ तककी प्रतिष्ठित प्रतिमायें तो हैं ही, साथ ही दि० जैन डिरैक्टरीके अनुसार पाँचवें फाटक के बादकी एक भीतपर जो प्रतिमा उत्कीर्ण है वह वि० सं० ११३४ की है । इससे क्या यह नहीं कहा जा सकता है कि वहाँपर बहुत पहलेसे दिगम्बर जैन मन्दिर थे ? पं० लालचन्दजी बड़ौदेमें रहते हैं । पावागढ़ वहाँसे समीप है । परन्तु जान पड़ता है उन्होंने स्वयं वहाँ जाकर कोई जाँच-पड़ताल नहीं की और अनुमानसे ही उन्होंने अपना निर्णय दे दिया है । __ ऐसे अनेक स्थान और तीर्थ हैं जहाँ दोनों सम्प्रदायोंके मन्दिर सैकड़ों-हजारों वर्षोंसे चले आये हैं । तब यह क्यों न माना जाय कि पावागढ़में दिगम्बर मन्दिर भी पहले थे ? मंत्रिवर तेजपालका समय ऐसा नहीं था कि दिगम्बर-श्वेताम्बर एक स्थानपर प्रेम-भावसे न रह सकते हों । उसके पहले और बादमें भी गुजरातमें दिगम्बर सम्प्रदाय रहा है और उनके धर्मस्थान रहे हैं, इसके सैकड़ों प्रमाण दिये
जा सकते हैं। __पावागढ़से लगभग ४२ मील उत्तरकी ओर गोधरा नामका नगर है । पूर्व कालमें यह स्थान विशाल और समृद्ध था । वहाँ चालुक्यनरेश कृष्णके राज्य-कालमें माथुरसंघके आचार्य अमरकीर्तिने वि० सं० १२७४ में 'छक्कम्मोवएस ' (षट्कर्मोपदेश) नामक अपभ्रंश ग्रन्थकी रचना की थी। इस ग्रन्थमें वहाँके ऋषभ-जिनेशके विशाल जैनमन्दिरका उल्लेख है