________________
३६४
जैनसाहित्य और इतिहास
वि० सं० १२९४ में श्वेताम्बर आचार्य महेन्द्रसूरिने 'शतपदी' नामक संस्कृत ग्रंथकी रचना की है जो प्राकृत शतपदीका अनुवाद है । प्राकृत शतपदी सं० १२६३ में बनी थी और उसके कर्ता धर्मघोषसूरि थे । उसमें 'दिगम्बरमतविचार' नामका एक अध्याय है जिसमें स्त्रीमुक्ति, प्रतिमा-शृंगार, मुनियोंका पाणिपात्रभोजन और वस्त्र ग्रहण आदि विषयोंको लेकर दिगम्बर सम्प्रदायकी
आलोचना की गई है। __ उसमें कहा है कि यदि तुम दिगम्बर हो तो फिर सादड़ी योगपट्ट क्यों गृहण करते हो ? यदि कहो कि पंचमकाल होनेसे और लजापरीषह सहन न होनेसे आवरण डाल लेते हैं, तो फिर उस पहिनते क्यों नहीं ? क्योंकि ऐसा निषेध तो कहीं है नहीं कि प्रावरण तो रखना परन्तु पहिनना नहीं। और वह प्रावरण भी जैसे तैसे मिले हुए प्रासुक वस्त्रसे क्यों नहीं बनाते हो, धोबी आदिके हाथसे जीवाकुल नदी तालावमें क्यों धुलवाते हो और विना साधे ईधनमें जलाई हुई आगके जरिए उसको रंगात भी क्यों हो ?' भी इससे मालूम होता है कि वसन्तकीर्ति के समयमें सादड़ी योगपट्ट आदिका उपयोग किया जाने लगा था। घास या ताड, खजूर
आदिके पत्तोंसे बनी हुई चटाईको सादड़ी कहते हैं । योगपट्ट शायद रेशमी कपड़ा राँगाकर बनाया जाता होगा। __ आगे इन दिगम्बर मुनियों के लिए वस्त्र धारण भी जायज-सा करार दिया गया । पूर्वोक्त श्रुतसागरसूरिने ही तत्त्वार्थसूत्र टीकामें स्वीकार किया है कि द्रव्यलिंगी मुनि शीतकालमें कम्बलादि ले लेते हैं और दूसरे समयमें उन्हें त्याग देते हैं । इसे उन्होंने
१ यदि च दिग्वासस्तत्कथं सादरिकापारियोगपट्टकान् गृह्णन्ति ? यदि तु पञ्चमकालत्वात् लजापरिषहासहिष्णुतया च आवरणमपि गृह्णन्ति ततः कथं न परिदधति ? नहि प्रावरणमत्कलं परिधानं च निषिद्धमित्यस्ति क्वापि । अन्यच्च प्रावरणमपि प्रासुकेनैववस्त्रेण यथालब्धेन किमिति न क्रियते ? किमिति रजकादिहस्तेन हृद्सरप्रभृतिषु सशैवालेन द्वित्रिचतुःपंचेन्द्रियजीवाकुलेन क्षालनमनेकसत्त्वसंघातविघातकेनाशोधितेन्धन प्रज्वालितेन बह्निना रंजनादिकं विधाप्यते ?
२ लिङ्ग विभेदं द्रव्यभावलिङ्गभेदात्। तत्र भावलिङ्गिनः पञ्चप्रकारा अपि निर्ग्रन्था भवन्ति । द्रव्यलिङ्गिन: असमर्था महर्षयः शीतकालादौ कम्बलादिकं गृहीत्वा न प्रक्षालयन्ते न सीव्यन्ति न प्रयत्नादिकं कुर्वन्ति अपरकाले परिहरंतीति भगवत्याराधनाप्रोक्ताभिप्रायेण कुशीलापेक्षया
---संयमश्रुतप्रतिसेवनादिसूत्रकी टीका ।
वक्तव्यम्।