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जैनसाहित्य और इतिहास
सफलता भी हुई है । सर्वसाधारण लोग यह समझने लगे हैं कि जैनी भी ईश्वरको मानते हैं और मंदिरोंमें हमारे ही समान उसकी मूर्तियाँ भी स्थापित करके पूजते हैं, सिर्फ इतना अन्तर है कि वे अपने ईश्वरको 'महावीर' 'पार्श्वनाथ' ' नेमिनाथ ' 'जिनदेव' आदि नामोंसे पुकारते हैं । परंतु वास्तवमें जैनधर्म अनीश्वरवादी है और यह उसकी अस्थिमज्जागत प्रकृति है। वह न छुपायेसे छुप सकती है और न बदलनेसे बदली जा सकती है । जब तक जैनधर्म और जैन-विज्ञानका आमूल परिवर्तन न कर दिया जाय, तब तक इसमेंसे अनीश्वरवाद पृथक् नहीं किया जा सकता।
जिन्होंने संसारके विविध धर्मोके इतिहासका अध्ययन किया है वे जानते हैं कि प्रत्येक धर्मपर उसके पड़ोसी धर्मोंका, प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष किसी न किसी रूपमें कुछ न कुछ प्रभाव अवश्य पड़ा है और जिस धर्मके अनुयायियोंकी संख्या कम हो जाती है अथवा जिसका प्रचार कम हो जाता है, उसपर तो दूसरे बलवान् और देशव्यापक धर्मोंका प्रभाव बहुत ही अधिक पड़ता है। उनके प्रभावोंसे प्रभावान्वित हुए बिना वह रह ही नहीं सकता। जिस समय बौद्ध और जैनधर्मका प्रभाव देशव्यापी हो रहा था, उनके अहिंसामूलक उपदेशोंके प्रति-जन साधारणका बहुत ही अधिक झुकाव हो रहा था, उस समय हिन्दूधर्मपर इन दोनों ही धर्मोंका बहुत बड़ा प्रभाव पड़ा था और उसका फल यह हुआ था कि हिन्दूधर्ममेंसे 'वैदिकी हिंसा' की विधियाँ निकाल दी गई या परिवर्तित कर दी गई और दूसरी सैकड़ों बातों में संशोधन परिवर्तन किया गया । इस विषयमें किसी किसी विद्वान्की तो यहाँतक सम्मति है कि वर्तमान हिन्दू धर्म प्राचीन हिन्दू धर्मका मूल स्वरूप नहीं किन्तु संस्कृत ( संस्कार किया हुआ ) स्वरूप है और उसके अंग प्रत्यंगोंमें बौद्ध-जैन-धोंके प्रभावके चिह्न सुस्पष्टरूपसे दृष्टिगोचर होते हैं । इसी प्रकार जब जैनधर्मका ह्रास हुआ और हिन्दूधर्मका प्रभाव फिर बढ़ा, तब स्वयं उसे भी हिन्दूधर्मके प्रभावसे प्रभावान्वित होना पड़ा। २०-२५ करेड़ हिन्दुओंके बीचमें १०-१५ लाख जैनधर्मानुयायी रहें और उनपर उनका प्रभाव न पड़े, यह संभव नहीं । जैनधर्मने जिस प्रकार हिन्दूधर्मको कुछ दिया था, उसी प्रकार उससे कुछ लिया भी।
ब्राह्मणधर्मसे जैनधर्मने क्या क्या लिया है, इसका विवेचन करनेकी यहाँ जरूरत नहीं, यहाँ केवल अनीश्वरवादका प्रसंग हैं । अतएव इसके सम्बन्धमें इतना ही